Saturday, February 26, 2011

एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल

ख़त आता था ख़त जाता था
बहुत अनकही कह जाता था

बूढ़े बरगद की छाया में
पूरा कुनबा रह जाता था

झगडा मनमुटाव ताने सब
इक आंसू में बह जाता था

कहे सुने को कौन पालता
जो कहना हो कह जाता था

तन की मन की सब बीमारी
माँ का आँचल सह जाता था

कई दिनों का बोल अबोला
मुस्काते ही ढह जाता था

लाख अभावों के जीवन में
भाव सदा ही बच जाता था

Friday, February 25, 2011

एक ग़ज़ल

अब दगों की ही रवायत हो गई
ज़िन्दगी गोया तवायफ हो गई

अब वफ़ा ही शूल सी चुभने लगी
आप की जब से इनायत हो गई

है मुहब्बत कह दिया चौराहे पर
जाने किस किस से अदावत हो गई

जो हुए गाफिल तो भुगतेंगे जनाब
आप को कैसे शिकायत हो गई

यूँ किताबों में लिखे अधिकार है
मांग बैठे,बस क़यामत हो गई

तान के मुक्का यूँ ही लहरा दिया
लीजिये अपनी बगावत हो गई

एक ग़ज़ल

अब दगों की ही रवायत हो गई
ज़िन्दगी गोया तवायफ हो गई

अब वफ़ा ही शूल सी चुभने लगी
आप की जब से इनायत हो गई

है मुहब्बत कह दिया चौराहे पर
जाने किस किस से अदावत हो गई

जो हुए गाफिल तो भुगतेंगे जनाब
आप को कैसे शिकायत हो गई

यूँ किताबों में लिखे अधिकार है
मांग बैठे,बस क़यामत हो गई

तान के मुक्का यूँ ही लहरा दिया
लीजिये अपनी बगावत हो गई

Tuesday, February 22, 2011

एक ग़ज़ल

खोट के सिक्के चलाये जा रहे है
लोग बन्दर से नचाये जा रहे है

आसमां में सूर्य शायद मर गया है
मोमबत्ती को जलाये जा रहे है

देखिये तांडव यहाँ पर हो रहा है
रामधुन क्यों गुनगुनाये जा रहे है

जो पिघल कर मोम से बहने लगे है
लोग वो काबिल बताये जा रहे है

आप को वो स्वप्नजीवी मानते है
स्वप्न अब रंगीन लाये जा रहे है

देखते है आसमां कैसे दिखेगा
शामियाने और लाये जा रहे है

Sunday, February 20, 2011

एक ग़ज़ल

हिल गए आधार है शायद जमीं के
ध्रुव तलक लगता नहीं काबिल यकीं के

खुश्क धरती का कलेजा फट गया है
है नहीं आसार अब बाकी नमी के

अब मकां न है नजर आती दीवारें
लोग रहते है यहाँ लगते कहीं के

रोज़ खाली हाथ लौटा उस गली से
इस कदर झूठे इशारे महज़बीं के

वक़्त गन्दी नालियों सा बह रहा है
आदमी-दर-आदमी साये गमी के

रोज़ काले बादलों की भीड़ लगती
आसमां में दायरे लेकिन कमी के

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Saturday, February 19, 2011

दो छोटी कवितायेँ

एक
और तभी होता है ये आभास
गिन गिन कर लेते है
एक एक
श्वांस
तोड़ कर पिंजड़ा
उड़ता है एक पंछी
और छाया मंडराती है
यहीं आसपास

दो

एक कोई
माघ की रात में गला
जेठ की घाम में जला
उसने हर बार
घर दिया
उसे
खलिहान ही मिला

एक गीत

एक गीत

कीचड दे बौछार
ठंडी ठंडी पवन नहीं है
नर्म गर्म वो बदन नहीं है
उजड़े नीद निहारे बैठी
- एक अकेली डार
गंगा ही जब उलटी बहती
नजर एक कमरे तक रहती
जाने कैसे गणित कहे है
-दो और दो है चार
हर पगडण्डी सड़क बनी है
अपनी ही जब छांह घनी है
तब क्यों न वो छुप कर बैठे
- जो कहलाता प्यार

Friday, February 18, 2011

एक ग़ज़ल

कब गुलाब की होगी धरती
सरकंडों की भोगी धरती

अब कोई उम्मीद नहीं है
शस्य-श्यामला होगी धरती

आदमजात कहो क्या कम है
और भक्ष्य क्या लोगी धरती

बच्चे कच्चे भूख मरे है
बनती कैसे जोगी धरती

लाखों वैध हकीम हुए है
पर रोगी की रोगी धरती

Wednesday, February 16, 2011

कुछ दोहे राजस्थानी माटी के

आंधी थी जो कर गयी,आँगन आँगन रेत
आई थी तो जायेगी,कहाँ रेत को हेत

रात चांदनी दूर तक टीलों का संसार
अळगोजे*की तान में बिखरा केवल प्यार

हडकम्पी जाड़ा पड़े,चाहे बरसे आग
सहज सहेजे मानखा माने सब को भाग

सतरंगी है ओढ़नी,पचरंगी है पाग
जीवन चाहे रेत हो मनवा खेले फाग

सुबह हुई कुछ और था,सांझ हुई कुछ और
आदम की नीयत हुआ,इन टीलों का तौर

अँधेरे की चीख से

एक ग़ज़ल

धुंधले हैअक्स सारे,कुछ तो दिखाइये
इस बोदे आईने को थोडा हटाइये

सावन के आप अंधे,दीखेगा ही हरा
रुख दूसरे के जानिब चेहरा घुमाइये

अरायजनवीस लाखों जीते तो मिल गये
अब हार की सनद ये किस से लिखाइये

कैसे करेंगे अब हम खेती गुलाब की
गमलों की है रवायत,कैक्टस उगाइये

खाली हुई चौपाल और उजड़ा हुआ अलाव
हुक्का है चीज़ कौमी,सिगरेट जलाइये

मेरे संग्रह अँधेरे की चीख से,संग्रह से उद्धृत सभी रचनाएँ
कॉपी राईट है,अनाधिकृत प्रयोग न करें.
कुछ मित्रों द्वारा दी गयी सूचना के कारण लिखना मजबूरी हो गया है

Friday, February 11, 2011

ek gazal

रोटियों से यहाँ भली गोली
इसलिये है नहीं टली गोली

ग़ज़ब कि आप को लगी कैसे
ये हवाओं में थी चली गोली

अमन औ चैन बरक़रार रहा
आप को किसलिये खली गोली

आजकल वादियों में गूंजे है
बूट, खाली गली , गोली

आपका हक बड़ा जो हक में है
सिर्फ बन्दूक क़ी नली गोली

गंध बारूद क़ी है सांसों में
इस क़दर मांस में ढली गोली

Wednesday, February 2, 2011

धूप दिसम्बर में

बिखरी है धूप
नरम रुई के गाले सी
नवजात खरगोश सी
कूदती फिरती है
आंगन में बच्चियों सी
खेलती है आइस पाइस
चढ़ती उतरती है सीढियाँ
करती है कानाफूसी
बतियाती है
कभी कभी चिढाती है
ठिठोली करती है
खिलंदड़ी धूप
कभी कभी देर से आती है
नकचढ़ी धूप
धूप आओ खेलेंगे
और खेल खेल में
तुम दीवार के उस पार भी झांकना