Friday, February 3, 2012

बस यूँ ही

मन कहाँ फगुनाता है
अब फागुन में
पनिया जाता है कभी
बिना सावन के भी

मौसम से टूटा रिश्ता
पिछले कई मौसमों के
आंसुओं को ढोता
याद करता है
निम्बोली की
मीठी कड़वाहट
फर्क याद करता है
नीम और आम के बौर में
खुलता है
पाले से जले
आक का सकुचाते हुए
धीरे धीरे विकसना

याद जीने लगी है
मरा तो होगा कुछ
मौसम ?
मन ?
रिश्ता ?