Monday, November 5, 2012

रंग रंग


सूरज का नजला
जितना गिरा
उतनी ही रंगों ने करवट ली
मिटटी का स्वाद,जीभ नहीं
रोम लेते हें
बदल देते हें
धूसर को हरे में

जितने बवंडर उठे
उतने ही धंसे रंग
गहरे और गहरे
पैंदे पर जमे काले रंग को
खुरच खुरच कर
जब उतारा गया
सुनहरी आब ली रंगों ने

होली के रंग फिर भी उतर जायेंगे
दीपावली के इन दीपों का
सुनहरा रंग
खिलखिलाता है देर तक
इंद्र धनुष के रंग
गड्ड मड्ड हो कर
सफ़ेद नहीं होते
हज़ार गुणा होते हें
आँखों से नहीं मन से देखे जाते हें

कांपती लहरों पर
सूरज बिखर जाता है
खील खील
कांच के टुकड़ों सी किरणें
चुभती नहीं,गुदगुदाती हें

सुनो
रंग शास्त्रीय राग नहीं गाते
वो गाते हें
मांड,कजरी,चैती,बिरहा आल्हा
ताल मिलाते हें
भपंग और बाउल की खंजरी के साथ 

Wednesday, October 17, 2012

खुरुंड खरोंचे

खुरुंड खरोंचे
धरती खोदें
किसी पेड़ की
छाल छील दें
पिथ कर देंगे
इक मेंढक को
मर्म तलाशें
आक्यु पंक्चर की सुई के
नोक बनायें
बड़े जतन से
शब्द बाण की

तालाबों पर फैली काई
अंदर कहीं
फ़ैल जायेगी
खपरैलों में छिपी छिपकली
कब सर पर
आ कर टपकेगी
इक गोरैया
उड़ जायेगी

किसी जिबह होते
बकरे की आँख
आसमां से झाँकेगी 

वक्त की नदी

वक्त की बहती नदी ये
काटती रहती किनारे
लील जाती द्वीप कितने
नित्य खुलता
मोर्चा कोई नया ही
जीत होगी एक पर तो
दुसरे पर हार निश्चित

कब पलट ले धार
कर बंजर
निकल जाये कहीं से
कब बने
अल्हड जवानी
कब बने ये
धीर प्रौढा
कब कहाँ टसके
बुढ़ापे की कसक सी

जाल मछुआरे का भर दे
मछलियों से
या कि
अटका दे
कोई घड़ियाल
फाड़े जाल को जो
हो भंवर तिलिस्मी
कौन जाने

बस कि
इक तैराक कोई
जानता है
नाज नखरे इस नदी के
ढूंढ लेता है
नदी में
जलपरी के
वो सुनहरी पंख
इक दिन 

Sunday, September 23, 2012

खलिहान कि कविता

खलिहान से निकली
कविता को
होना चाहिये गुइंया
किसी टिकुली या
रंगीन लूगड़ी की
जाना चाहिये
पुरानी बही में लगे
अंगूठे को ढूँढने
सहलाना चाहिये
खांसते फेफड़ों को
चमकाना चाहिये
आँखों को
सितारों की तरह
घुमा देना चाहिये
पैरों को
लट्टू की तरह
पहन लेना चाहिये
ठसकेदार साफा

नहीं होना चाहिये उसे
काले हिरण या
चिंकारा की तरह
नहीं होना चाहिये
उजाड खँडहर में
उकेरी गयी
मूर्त्तियों की तरह
नहीं होना चाहिये
समुद्र में डूब कर
आत्म हत्या करते
अस्ताचलगामी सूरज की तरह

चाहिये न चाहिये
के बीच भी
कविता
तुम निकलते ही रहना
खलिहान से
सूर्योदय के साथ


Sunday, September 16, 2012


जानता हूँ
जो थोडा सा
अतिरिक्त मांस
तुम्हे स्त्री बनाता है
वही मुझे पुरुष बनाता है

याद है
तुम्हारे अस्तित्व का
हिस्सा रहा
मेरा असहाय,डरा हुआ
प्राम्भिक अस्तित्व

सच
मैं आज भी
उतना ही डरा  हुआ हूँ
उतना ही निर्भर हूँ

फर्क इतना ही है
तुम्हारे दूध ने
इन अंगों को
तुम से ज्यादा
पुष्ट कर दिया है

Saturday, September 1, 2012

एक सपना

गदबदे बच्चे सा
वो अनमोल सपना
रात मेरी गोद बैठा
फिर पकड़ उंगली मेरी
डग भर चला था
एक ललछौंही ललक सा
फिर लपक कर
डाल कर मेरे गले
छोटी सी बाँहें
देर तक लिपटा रहा
आश्वस्त करता
फुसफुसाया फिर
मैं हिस्सा हूँ तुम्हारा
इक महक बन
रम गया हूँ
बीज हूँ मैं
ढूंढ भूमि उर्वरा अब
मैं फलूँगा

इक इबारत हूँ
मुझे लिख
आसमां पर
मैं बरस जाऊँगा
इक दिन
गा उठेगी
ये धरा भी

पाल मुझ को
थपकियाँ दे मत सुला
जागा रहा तो
जिंदगी के अर्थ
तुझ पर खोल दूंगा
मैं हूँ कुंजी
हूँ इशारा
साथ ले मुझ को
चला चल

बंद दरवाजों के पीछे
क्या
तुझे बतला सकूंगा 

Friday, August 31, 2012

दिन हिस्से का

वही उनींदा
दिन हिस्से का
फिर निकला है
ऊंघा ऊंघा
आँख मसलता
झांक रहा है
खिडकी में से
पथराया सा आसमान है
धरती भी बेसुध
अलसाई

गली पड़ी
निर्लज्ज उघाड़ी
वक्त बेहया
दांत मांजता
देख रहा है
लगा टकटकी

टपका ही होगा
महुआ भी
इक आँगन में
हारसिंगार महकता होगा
जुही झटक रही होगी
शबनम की बूँदें
गमले में इक
सजा मोगरा
इतराता हो

हिस्सा हिस्सा
दिन निकला है
अपने अपने
किस्से ले कर
महका दिन या
टपका दिन हो
मौसम गर
पथरा जायेगा
बहुत पछीटा जाये
फिर भी
दिन उजला होना
मुश्किल है