ये मेरी गली है
मेरी अपनी
इस में ही मैं
लोट लोट कर बड़ा हुआ हूँ
कितने चित्र
टंगे हैं मेरे
इस के चित पर
वह दिन जब मैं
नाक बहाता घूमा करता
वह दिन जब मैं
पट्टी पर क ख लिखता था
वह दिन जब
मेरी रेखें फूटी फूटी थी
वह दिन जब
मैं खुद पर ही लट्टू होता था
वह दिन
किरकिट का पहला चक्का मारा था
वह दिन जब
पहला पहला सुट्टा मारा था
वह दिन जब
मैंने तोड़ी भरपूर निम्बोरी
मुंह मेरा
मीठा कड़वा ,कड़वा मीठा था
वह दिन जब
मैंने चोरा था एक रुपैया
खट्टी मीठी गोली से जेबें भारी थी
उस दिन पूरी दुनिया से अपनी यारी थी
झूल गया था
बन्दर सा उस नीम डाल से
माँ के हाथों
चप्पल थी
जाने चिमटा था
कितनी बार छिलाये
अपने घुटने मैंने
फिर भी गिल्ली -डंडा ,कंचे
खेले मैंने
रातों लुका छिपी
खेली है इन बाड़ों में
हरा समंदर गोपी चंदर
बोलो मछली कितना पानी
क्या बोलूं
जाने कितना कितना पानी था
पानी था कीचड़ का लेकिन
नाम नहीं था
हाँ ये गली खुली हुई
दोनों छोरों से
जाने कैसे
एक और से बंद हो गयी
अब मैं इस में नहीं
मुझी में ये जीती है
अंजुरी भर भर कर
रातों मुझ को पीती है
Monday, August 29, 2011
Monday, August 22, 2011
एक गज़ल
है परत-दर-परत क्या बना आदमी
जैसे कोहरे का साया घना आदमी
जब मुकाबिल खड़ा अक्स खुद का हुआ
कर न पाया कभी सामना आदमी
चाशनी में मुहब्बत की सर तक पगा
और अगले ही पल कटखना आदमी
न रहो मन जले,गर रहो तन जले
जैसे है इक मकां अधबना आदमी
इस अलस भोर में आधा जागा हुआ
आधा सोता हुआ,अनमना आदमी
ख्वाहिशें,बंदिशें,साजिशें लाख हों
भूल पाया नहीं धड़कना आदमी
एक पाकीज़गी है जो कायम रही
यूँ गलाज़त में कितना सना आदमी
जैसे कोहरे का साया घना आदमी
जब मुकाबिल खड़ा अक्स खुद का हुआ
कर न पाया कभी सामना आदमी
चाशनी में मुहब्बत की सर तक पगा
और अगले ही पल कटखना आदमी
न रहो मन जले,गर रहो तन जले
जैसे है इक मकां अधबना आदमी
इस अलस भोर में आधा जागा हुआ
आधा सोता हुआ,अनमना आदमी
ख्वाहिशें,बंदिशें,साजिशें लाख हों
भूल पाया नहीं धड़कना आदमी
एक पाकीज़गी है जो कायम रही
यूँ गलाज़त में कितना सना आदमी
Thursday, August 4, 2011
एक गज़ल
एक गज़ल
तस्वीरं जिन की छपती अख़बारों में
लोग वही मिल जाते हैं गलियारों में
खाक,कफ़न और आग कहाँ मिल पाएगी
जिंदा ही जब चुने गए दीवारों में
वो बाजारू कभी कहाँ कहलाते हैं
अक्सर जो घूमा करते बाजारों में
एक सुबह का अक्स कभी दिखलाया था
ढूंढ रहा हूँ आकाशी विस्तारों में
संविधान की पोथी मुझे दिखाओ तो
क्या लिक्खा है वहाँ मूल अधिकारों में
रोज योजना एक नयी आ जाती है
और भीड़ बढ़ जाती कई कतारों में
वोट लिया और सजा पालकी जा बैठे
वोट दिया और शामिल हुए कहारों में
तस्वीरं जिन की छपती अख़बारों में
लोग वही मिल जाते हैं गलियारों में
खाक,कफ़न और आग कहाँ मिल पाएगी
जिंदा ही जब चुने गए दीवारों में
वो बाजारू कभी कहाँ कहलाते हैं
अक्सर जो घूमा करते बाजारों में
एक सुबह का अक्स कभी दिखलाया था
ढूंढ रहा हूँ आकाशी विस्तारों में
संविधान की पोथी मुझे दिखाओ तो
क्या लिक्खा है वहाँ मूल अधिकारों में
रोज योजना एक नयी आ जाती है
और भीड़ बढ़ जाती कई कतारों में
वोट लिया और सजा पालकी जा बैठे
वोट दिया और शामिल हुए कहारों में
Tuesday, August 2, 2011
गज़ल मेरे प्रकाशनाधीन संग्रह से
यूँ तो मंजिल को जान लेते हैं
रास्ते इम्तिहान लेते हैं
सोच अपनी हुई परिंदों सी
जैसे चाहे उड़ान लेते हैं
जो भी देखा है, वो ही कहते हैं
फिर भी हलफन बयान लेते हैं
वो ही बाहक जवान होते हैं
कर गुजरते जो ठान लेते हैं
जिंदगी का गणित वही समझे
जो कभी दिल की मान लेते हैं
लोग झोली भी भर नहीं पाते
लेने वाले ज़हान लेते हैं
वो जो आला गुनाह करते हैं
रहनुमा बन कमान लेते हैं
रास्ते इम्तिहान लेते हैं
सोच अपनी हुई परिंदों सी
जैसे चाहे उड़ान लेते हैं
जो भी देखा है, वो ही कहते हैं
फिर भी हलफन बयान लेते हैं
वो ही बाहक जवान होते हैं
कर गुजरते जो ठान लेते हैं
जिंदगी का गणित वही समझे
जो कभी दिल की मान लेते हैं
लोग झोली भी भर नहीं पाते
लेने वाले ज़हान लेते हैं
वो जो आला गुनाह करते हैं
रहनुमा बन कमान लेते हैं
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