Monday, August 29, 2011

मेरी गली

ये मेरी गली है
मेरी अपनी
इस में ही मैं
लोट लोट कर बड़ा हुआ हूँ
कितने चित्र
टंगे हैं मेरे
इस के चित पर

वह दिन जब मैं
नाक बहाता घूमा करता
वह दिन जब मैं
पट्टी पर क ख लिखता था

वह दिन जब
मेरी रेखें फूटी फूटी थी
वह दिन जब
मैं खुद पर ही लट्टू होता था
वह दिन
किरकिट का पहला चक्का मारा था
वह दिन जब
पहला पहला सुट्टा मारा था

वह दिन जब
मैंने तोड़ी भरपूर निम्बोरी
मुंह मेरा
मीठा कड़वा ,कड़वा मीठा था

वह दिन जब
मैंने चोरा था एक रुपैया
खट्टी मीठी गोली से जेबें भारी थी
उस दिन पूरी दुनिया से अपनी यारी थी

झूल गया था
बन्दर सा उस नीम डाल से
माँ के हाथों
चप्पल थी
जाने चिमटा था

कितनी बार छिलाये
अपने घुटने मैंने
फिर भी गिल्ली -डंडा ,कंचे
खेले मैंने

रातों लुका छिपी
खेली है इन बाड़ों में
हरा समंदर गोपी चंदर
बोलो मछली कितना पानी

क्या बोलूं
जाने कितना कितना पानी था
पानी था कीचड़ का लेकिन
नाम नहीं था

हाँ ये गली खुली हुई
दोनों छोरों से
जाने कैसे
एक और से बंद हो गयी

अब मैं इस में नहीं
मुझी में ये जीती है
अंजुरी भर भर कर
रातों मुझ को पीती है

Monday, August 22, 2011

एक गज़ल

है परत-दर-परत क्या बना आदमी
जैसे कोहरे का साया घना आदमी

जब मुकाबिल खड़ा अक्स खुद का हुआ
कर न पाया कभी सामना आदमी

चाशनी में मुहब्बत की सर तक पगा
और अगले ही पल कटखना आदमी

न रहो मन जले,गर रहो तन जले
जैसे है इक मकां अधबना आदमी

इस अलस भोर में आधा जागा हुआ
आधा सोता हुआ,अनमना आदमी

ख्वाहिशें,बंदिशें,साजिशें लाख हों
भूल पाया नहीं धड़कना आदमी

एक पाकीज़गी है जो कायम रही
यूँ गलाज़त में कितना सना आदमी

Thursday, August 4, 2011

एक गज़ल

एक गज़ल

तस्वीरं जिन की छपती अख़बारों में
लोग वही मिल जाते हैं गलियारों में

खाक,कफ़न और आग कहाँ मिल पाएगी
जिंदा ही जब चुने गए दीवारों में

वो बाजारू कभी कहाँ कहलाते हैं
अक्सर जो घूमा करते बाजारों में

एक सुबह का अक्स कभी दिखलाया था
ढूंढ रहा हूँ आकाशी विस्तारों में

संविधान की पोथी मुझे दिखाओ तो
क्या लिक्खा है वहाँ मूल अधिकारों में

रोज योजना एक नयी आ जाती है
और भीड़ बढ़ जाती कई कतारों में

वोट लिया और सजा पालकी जा बैठे
वोट दिया और शामिल हुए कहारों में

Tuesday, August 2, 2011

गज़ल मेरे प्रकाशनाधीन संग्रह से

यूँ तो मंजिल को जान लेते हैं
रास्ते इम्तिहान लेते हैं

सोच अपनी हुई परिंदों सी
जैसे चाहे उड़ान लेते हैं

जो भी देखा है, वो ही कहते हैं
फिर भी हलफन बयान लेते हैं

वो ही बाहक जवान होते हैं
कर गुजरते जो ठान लेते हैं

जिंदगी का गणित वही समझे
जो कभी दिल की मान लेते हैं

लोग झोली भी भर नहीं पाते
लेने वाले ज़हान लेते हैं

वो जो आला गुनाह करते हैं
रहनुमा बन कमान लेते हैं