Friday, June 29, 2012

छूट गया कुछ


थोडा थोडा छूट गया हूँ 
एक गली के कोने मे कुछ 
छत की उस दिवार के पीछे 
रूमानी शेरों मे थोडा
नाई की दूकान पर शायद 
चाय पान की थडी पै कुछ हो 
एक पेड़ के तने पै शायद 
अब भी मेरा नाम खुदा हो 
भरे हुए उस इक जोहड़ मे 
लटके हुए पैर हों शायद 
उस विशाल टीले पर देखो 
लुढक रहा हो मेरा बचपन  
गीली रेत थपक पैरों पर 
बने हुए सब घरों मे होगा 


भुने बाजरे के सिट्टे मे 
झडबेरी मे भी अटका हूँ 
चितकबरी बकरी भोली सी 
गौरी गैया रम्भा रही है 
ऊँट कई किश्तों मे उठता 
जीवन की अंगडाई जैसा 
एक भेड़ का बच्चा शायद 
गर्दन अब भी चाट रहा है 


खाली माचिस की डिब्बी मे 
बंद कई क्षण मेरे ही है 
सोडा वाटर की बोतल का ढक्कन 
अभी जेब मे शायद 


जितना जो छूटा
उतना खालीपन भरने 
जाने कितने जतन किये हैं 


मानव अंग मगर 
खो जाते तो खो जाते 
मरने तक बस वही कमी 
पीछा करती है  

Thursday, June 7, 2012

neend khuli kab

अंधियारा आने से पहले 
अंधियारा जाने से पहले 
मौसम इक जैसा होता है 
वही झुटपुटा 
सूरज, चंदा 
दोनों गायब 
कहीं कहीं 
रोशनी झांके 
अन्धकार भी थोडा थोडा 
भोर हुई या 
सांझ ढली है
कैसे ये निश्चित हो पाए
जागे हुए
मगर सोये से
भौंचक्के से
असमंजस मे
आसमान का घिसा दुशाला
देख देख कर
सोच रहा हूँ
जाने क्या आने वाला है
अन्धकार या चटक रौशनी
जो आना है
जैसे आये
नींद मगर
कब खुल पाती है

Monday, June 4, 2012

ek gazal

सीधे उलटे फंदों से, कुछ बुन,लड़की 
नयी सलाई,नयी ऊन को,चुन,लड़की 

घर भर की खुशियाँ गिरवी हो जायेंगी 
बढती बेल सरीखी,होती,घुन,लड़की 

खुद के घर की परिभाषा का पता नहीं 
गृह प्रवेश का होती,मगर,शगुन,लड़की 

खटरागों की उम्र हुई पूरी जानो
बना वक्त को साज,बजा,इक धुन,लड़की

तुझे सुनाने वालों की सुन फ़ौज खड़ी
सुन सकती हो जितना,उतना सुन,लड़की

Sunday, June 3, 2012

alaav


ताप रहे हैं सब
अलाव ही
ताप,रौशनी के घेरों मे
लिए कुनकुनी
गर्माहट को
भुने आलुओं को
छीलेंगे
मूंगफली शायद
फोड़ेंगे
नहीं बैठने देंगे
लेकिन
उस अलाव पर
अन्य किसी को
नहीं समझ पाए हैं शायद
इक अलाव की गर्माहट से
ज्यादा सुख कर
हाथों से हाथों मे जाती
जिंदा गर्माहट होती है

ठंडा मौसम
अन्धकार भी
पाँव बढ़ाते रहें निरंतर
छोडो यारो
रहे सलामत
इक अलाव बस
रोशन घेरों के सायों से
बाहर साये
कितने गहरे
क्या लेना
गहराते जाएँ
लकड़ी देखें
बस अलाव की
मक्की के भुट्टों की
थोड़ी करें व्यवस्था

नंग धडंगे
कुछ मलंग भी
औघड फक्कड़
लिए मशालें
दिखते तो हैं
गलियों गलियों
फूंक झोपड़ा
अलख जगाते
गाते आते
सुनो प्रभाती

अंधकार की चादर को
फाड़ेंगे वो ही
टाँगेंगे वो
इक मशाल
इन मीनारों पर
जर्जर होते
शिखरों पर भी
सभी मुखौटों को
उखाड फेंकेंगे
इक दिन

नंगा सत्य
मलंगों का
सच्चा होता है