Monday, December 10, 2012

kavita

सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ 
कलम दवात से 
कागज पर नहीं लिखी गयी 
दरअसल वो कभी भी,कहीं भी 
नहीं लिखी गयी

वो बस जी गयी थी
आंसू,पसीने और खून मे
अलग अलग काल खण्डों मे
धरती के केनवास पर
विभिन्न रंगों,रूपाकारों मे
बिखर गयी थी कविता

चुटकी भर नमक सी
मुट्ठी भर रेत सी
बांहों भर इंद्रधनुष सी
छा गयी थी आसमान पर
बरस गयी थी
छिपे कोनों मे

कह दी गयी थी
एक थपकी से
तिरछी नज़र से
बेबस निगाह से
धरती कुरेदते अंगूठे से
बैठे कलेजे से
माथे पर रखे हाथ से
सिसकी से
हिचकी से
तलवार से
हल से
फांसी के फंदे से

कहाँ कहाँ
अभिव्यक्त नहीं हुई कविता
बस नहीं आ पाई
कागज पर 

Sunday, December 9, 2012

ek gazal

बोलती खामोशियाँ भी 
ऊबती नजदीकियां भी 

सर चढ़े वैताल सी हें 
बेवज़ह मायूसियाँ भी 

जागती आँखें पनीली 
अल सुबह सरगोशियाँ भी 

लौटती हें घूम फिर कर 
जी गयी नादानियाँ भी

हें पहाड़ों की कशिश मे
रेत सी आसानियाँ भी

मौत थी या जिंदगी थी
वो मरी मरजानियाँ भी

मानता सौगात है वो
दी गयी कुर्बानियाँ भी

Monday, November 5, 2012

रंग रंग


सूरज का नजला
जितना गिरा
उतनी ही रंगों ने करवट ली
मिटटी का स्वाद,जीभ नहीं
रोम लेते हें
बदल देते हें
धूसर को हरे में

जितने बवंडर उठे
उतने ही धंसे रंग
गहरे और गहरे
पैंदे पर जमे काले रंग को
खुरच खुरच कर
जब उतारा गया
सुनहरी आब ली रंगों ने

होली के रंग फिर भी उतर जायेंगे
दीपावली के इन दीपों का
सुनहरा रंग
खिलखिलाता है देर तक
इंद्र धनुष के रंग
गड्ड मड्ड हो कर
सफ़ेद नहीं होते
हज़ार गुणा होते हें
आँखों से नहीं मन से देखे जाते हें

कांपती लहरों पर
सूरज बिखर जाता है
खील खील
कांच के टुकड़ों सी किरणें
चुभती नहीं,गुदगुदाती हें

सुनो
रंग शास्त्रीय राग नहीं गाते
वो गाते हें
मांड,कजरी,चैती,बिरहा आल्हा
ताल मिलाते हें
भपंग और बाउल की खंजरी के साथ 

Wednesday, October 17, 2012

खुरुंड खरोंचे

खुरुंड खरोंचे
धरती खोदें
किसी पेड़ की
छाल छील दें
पिथ कर देंगे
इक मेंढक को
मर्म तलाशें
आक्यु पंक्चर की सुई के
नोक बनायें
बड़े जतन से
शब्द बाण की

तालाबों पर फैली काई
अंदर कहीं
फ़ैल जायेगी
खपरैलों में छिपी छिपकली
कब सर पर
आ कर टपकेगी
इक गोरैया
उड़ जायेगी

किसी जिबह होते
बकरे की आँख
आसमां से झाँकेगी 

वक्त की नदी

वक्त की बहती नदी ये
काटती रहती किनारे
लील जाती द्वीप कितने
नित्य खुलता
मोर्चा कोई नया ही
जीत होगी एक पर तो
दुसरे पर हार निश्चित

कब पलट ले धार
कर बंजर
निकल जाये कहीं से
कब बने
अल्हड जवानी
कब बने ये
धीर प्रौढा
कब कहाँ टसके
बुढ़ापे की कसक सी

जाल मछुआरे का भर दे
मछलियों से
या कि
अटका दे
कोई घड़ियाल
फाड़े जाल को जो
हो भंवर तिलिस्मी
कौन जाने

बस कि
इक तैराक कोई
जानता है
नाज नखरे इस नदी के
ढूंढ लेता है
नदी में
जलपरी के
वो सुनहरी पंख
इक दिन 

Sunday, September 23, 2012

खलिहान कि कविता

खलिहान से निकली
कविता को
होना चाहिये गुइंया
किसी टिकुली या
रंगीन लूगड़ी की
जाना चाहिये
पुरानी बही में लगे
अंगूठे को ढूँढने
सहलाना चाहिये
खांसते फेफड़ों को
चमकाना चाहिये
आँखों को
सितारों की तरह
घुमा देना चाहिये
पैरों को
लट्टू की तरह
पहन लेना चाहिये
ठसकेदार साफा

नहीं होना चाहिये उसे
काले हिरण या
चिंकारा की तरह
नहीं होना चाहिये
उजाड खँडहर में
उकेरी गयी
मूर्त्तियों की तरह
नहीं होना चाहिये
समुद्र में डूब कर
आत्म हत्या करते
अस्ताचलगामी सूरज की तरह

चाहिये न चाहिये
के बीच भी
कविता
तुम निकलते ही रहना
खलिहान से
सूर्योदय के साथ


Sunday, September 16, 2012


जानता हूँ
जो थोडा सा
अतिरिक्त मांस
तुम्हे स्त्री बनाता है
वही मुझे पुरुष बनाता है

याद है
तुम्हारे अस्तित्व का
हिस्सा रहा
मेरा असहाय,डरा हुआ
प्राम्भिक अस्तित्व

सच
मैं आज भी
उतना ही डरा  हुआ हूँ
उतना ही निर्भर हूँ

फर्क इतना ही है
तुम्हारे दूध ने
इन अंगों को
तुम से ज्यादा
पुष्ट कर दिया है

Saturday, September 1, 2012

एक सपना

गदबदे बच्चे सा
वो अनमोल सपना
रात मेरी गोद बैठा
फिर पकड़ उंगली मेरी
डग भर चला था
एक ललछौंही ललक सा
फिर लपक कर
डाल कर मेरे गले
छोटी सी बाँहें
देर तक लिपटा रहा
आश्वस्त करता
फुसफुसाया फिर
मैं हिस्सा हूँ तुम्हारा
इक महक बन
रम गया हूँ
बीज हूँ मैं
ढूंढ भूमि उर्वरा अब
मैं फलूँगा

इक इबारत हूँ
मुझे लिख
आसमां पर
मैं बरस जाऊँगा
इक दिन
गा उठेगी
ये धरा भी

पाल मुझ को
थपकियाँ दे मत सुला
जागा रहा तो
जिंदगी के अर्थ
तुझ पर खोल दूंगा
मैं हूँ कुंजी
हूँ इशारा
साथ ले मुझ को
चला चल

बंद दरवाजों के पीछे
क्या
तुझे बतला सकूंगा 

Friday, August 31, 2012

दिन हिस्से का

वही उनींदा
दिन हिस्से का
फिर निकला है
ऊंघा ऊंघा
आँख मसलता
झांक रहा है
खिडकी में से
पथराया सा आसमान है
धरती भी बेसुध
अलसाई

गली पड़ी
निर्लज्ज उघाड़ी
वक्त बेहया
दांत मांजता
देख रहा है
लगा टकटकी

टपका ही होगा
महुआ भी
इक आँगन में
हारसिंगार महकता होगा
जुही झटक रही होगी
शबनम की बूँदें
गमले में इक
सजा मोगरा
इतराता हो

हिस्सा हिस्सा
दिन निकला है
अपने अपने
किस्से ले कर
महका दिन या
टपका दिन हो
मौसम गर
पथरा जायेगा
बहुत पछीटा जाये
फिर भी
दिन उजला होना
मुश्किल है


आधुनिक दोहे

गलियों गलियों हो रही रंगों की बौछार

बस्ती बस्ती हो गये कितने रंगे सियार



बातों बातों में हुई ख़ारिज अपनी बात

बातों बातों नप गयी यूँ अपनी औकात



रंग हुए शमशीर से,रंग बने पहचान

जीना बेरंगी हुआ अब कितना आसान



झंडे , बैनर ,पोस्टर ,नारे या उद्घोष

जब भी कोई चुन लिया,हो जाते मदहोश


Monday, August 27, 2012

कागज

सुनो
कागज बहुत करामाती चीज़ है
जिस पर क्रांति
घटित की गयी है /
की जा रही है /
की जा सकती है.
फिर
बंद किया जा सकता है उसे
कल्लू कबाड़ी के गोदाम में
उस पर रख कर
खाई जा सकती है कचोरी
किया जा सकता है
पुनर्चक्रित
बनाया जा सकता है
मॉल में बेचे गये माल
हेतु
कैरीबैग


Thursday, August 23, 2012

विषपायी

लपलपाती जीभ 
छाई आसमां पर 
बैगनी बादल 
बने हैं 
सांड छुट्टे

इक भिखारिन सी 
धरा ये 
ताकती है 
लाज धरती की 
भला अब कौन ढांपे
क्या संभाले
वस्त्र जर्जर
जो कि
तुरपन से परे हैं
इक नदी की लाश को
छाती लगाये
पूछती है
झील ये
क्यूँ मर रही है
ढोल से बजते
पहाड़ों से
निकलती हैं सदाएं

गर्क गुब्बारे कई कर
फाड़ कर
कितनी पतंगें
आंधियां फुफकारती हैं
उठ रहे कितने बगूले
आँख में
ज़बरन कसकते

इक हरिण मादा
खड़ी सिसकी दबाये
शेर बैठा मांद में
बांचे किताबें
गीदड़ों की टोलियाँ
बाजार घूमे
एक चूहा
देखता है
आदमी ने बिल बनाए

इक रंभाती गाय
सहसा कह उठी है
एक विष कन्या बनी मै
कब तलक
अमृत पिलाऊँ

Sunday, August 19, 2012

सुन रे कलुआ

सुन रे कलुआ
प्रेम लिखें क्या ?
चल जुगाड कर
कोई कलेंडर
औरत की फोटू वाला हो
ढूंढ कि इस में
प्रेम छिपा है
बालों में
आँखों में होगा
माथे की सलवट खंगाल तो
कानों के पीछे ढूँढा क्या ?
नाक देख तो
सांस पता कर
गन्ध कोई तो
आती होगी
गर्दन देखी ?
कन्धों पर लटका हो शायद
देख जरा
हाथों में क्या है
अरे भाग्य रेखा में होगा
छिपा उँगलियों की पोरों में
या फिर गर्म हथेली में हो

देख
झटक कर इन सपनों को
उखड़ी साँसों का
हिसाब कर
आंसू को
थोडा उबाल ले
तकिये का
गीलापन देखा ?

चल रे छोड़
पलट थोडा तो
देख दिठौने में दिखता है
मौली के धागे में बैठा
वहाँ बाजरे के सिट्टे में
चने के खट्टे साग में होगा
रोटी की सौंधी
सुगंध में

थोडा धौल धप्पे में
भी है
मीठी सी
झिडकी,गाली में

ये पक्का भगवान के जैसा
मिले कहाँ
ये किसे पता है

पता कहीं दे
मिले कहीं पे 

Thursday, August 16, 2012

खोया पाया

अर्द्ध शतक के पार
जिंदगी आ पहुंची है
देख रहा हूँ
तलपट में क्या
दर्ज हुआ है
जो खोया है
ज़िक्र भला क्या
जो पाया है
वो ही देखूं

पाये हैं
कुछ तमगे,ट्राफी
लेबल हैं कुछ
नेम प्लेट है
सींग निकल आये हैं
सर पर
अकड़ी गर्दन
सिर को कब
हिलने देती है
माथे की सलवट
बरसाती अंगारे से
भिंची मुट्ठीयों की
गिरफ्त में
कई कहानी
कह भी डाली
नहीं मगर जो
कह पाया वो

थोड़े से
सिंदूरी पल हैं
मटमैले कुछ
धूसर थोड़े
इक ढक्कन में बंद
बहुत सारा उफान है
चीख दूध की
उबल उबल कर
ना बह पाया

गोल मेज़ पर बैठ
की गयी कानाफूसी
कोनों में कुछ
लिखी इबारत
धुंधली धुंधली
कई उफनते अहसासों की
लिए गठरिया
झोली भर विश्वासों के
साये में दिखते
फटी कंथडी के
कुछ बेबस से टाँके हैं

दर्ज पतंगों की उड़ान है
उलझी उलझी
डोर हाथ में

गहरे पानी के मूंगे
जिन को समझा था
उथले पानी की
सीपों में
बदल गये हैं

एक गोडावण रेगिस्तानी
ठुमक ठुमक
चलता यादों में
काली पीली आंधी में
खोता जाता है
मोर कभी जो
सतरंगी पंखों से नाचा
छोड़ पंख को
घूम रहा है

वीरबहुटी
ताक रही है
इक कलगी धारी
मुर्गे को 

Friday, June 29, 2012

छूट गया कुछ


थोडा थोडा छूट गया हूँ 
एक गली के कोने मे कुछ 
छत की उस दिवार के पीछे 
रूमानी शेरों मे थोडा
नाई की दूकान पर शायद 
चाय पान की थडी पै कुछ हो 
एक पेड़ के तने पै शायद 
अब भी मेरा नाम खुदा हो 
भरे हुए उस इक जोहड़ मे 
लटके हुए पैर हों शायद 
उस विशाल टीले पर देखो 
लुढक रहा हो मेरा बचपन  
गीली रेत थपक पैरों पर 
बने हुए सब घरों मे होगा 


भुने बाजरे के सिट्टे मे 
झडबेरी मे भी अटका हूँ 
चितकबरी बकरी भोली सी 
गौरी गैया रम्भा रही है 
ऊँट कई किश्तों मे उठता 
जीवन की अंगडाई जैसा 
एक भेड़ का बच्चा शायद 
गर्दन अब भी चाट रहा है 


खाली माचिस की डिब्बी मे 
बंद कई क्षण मेरे ही है 
सोडा वाटर की बोतल का ढक्कन 
अभी जेब मे शायद 


जितना जो छूटा
उतना खालीपन भरने 
जाने कितने जतन किये हैं 


मानव अंग मगर 
खो जाते तो खो जाते 
मरने तक बस वही कमी 
पीछा करती है  

Thursday, June 7, 2012

neend khuli kab

अंधियारा आने से पहले 
अंधियारा जाने से पहले 
मौसम इक जैसा होता है 
वही झुटपुटा 
सूरज, चंदा 
दोनों गायब 
कहीं कहीं 
रोशनी झांके 
अन्धकार भी थोडा थोडा 
भोर हुई या 
सांझ ढली है
कैसे ये निश्चित हो पाए
जागे हुए
मगर सोये से
भौंचक्के से
असमंजस मे
आसमान का घिसा दुशाला
देख देख कर
सोच रहा हूँ
जाने क्या आने वाला है
अन्धकार या चटक रौशनी
जो आना है
जैसे आये
नींद मगर
कब खुल पाती है

Monday, June 4, 2012

ek gazal

सीधे उलटे फंदों से, कुछ बुन,लड़की 
नयी सलाई,नयी ऊन को,चुन,लड़की 

घर भर की खुशियाँ गिरवी हो जायेंगी 
बढती बेल सरीखी,होती,घुन,लड़की 

खुद के घर की परिभाषा का पता नहीं 
गृह प्रवेश का होती,मगर,शगुन,लड़की 

खटरागों की उम्र हुई पूरी जानो
बना वक्त को साज,बजा,इक धुन,लड़की

तुझे सुनाने वालों की सुन फ़ौज खड़ी
सुन सकती हो जितना,उतना सुन,लड़की

Sunday, June 3, 2012

alaav


ताप रहे हैं सब
अलाव ही
ताप,रौशनी के घेरों मे
लिए कुनकुनी
गर्माहट को
भुने आलुओं को
छीलेंगे
मूंगफली शायद
फोड़ेंगे
नहीं बैठने देंगे
लेकिन
उस अलाव पर
अन्य किसी को
नहीं समझ पाए हैं शायद
इक अलाव की गर्माहट से
ज्यादा सुख कर
हाथों से हाथों मे जाती
जिंदा गर्माहट होती है

ठंडा मौसम
अन्धकार भी
पाँव बढ़ाते रहें निरंतर
छोडो यारो
रहे सलामत
इक अलाव बस
रोशन घेरों के सायों से
बाहर साये
कितने गहरे
क्या लेना
गहराते जाएँ
लकड़ी देखें
बस अलाव की
मक्की के भुट्टों की
थोड़ी करें व्यवस्था

नंग धडंगे
कुछ मलंग भी
औघड फक्कड़
लिए मशालें
दिखते तो हैं
गलियों गलियों
फूंक झोपड़ा
अलख जगाते
गाते आते
सुनो प्रभाती

अंधकार की चादर को
फाड़ेंगे वो ही
टाँगेंगे वो
इक मशाल
इन मीनारों पर
जर्जर होते
शिखरों पर भी
सभी मुखौटों को
उखाड फेंकेंगे
इक दिन

नंगा सत्य
मलंगों का
सच्चा होता है  

Wednesday, May 30, 2012

boond ka sapna


लाल गलीचा
चलो बिछाएं
हरी दूब पर

खत आया है
खत जो
निश्चित कर देगा
मेरा कद बूता
दुनिया के मेले मे
क्या कीमत है मेरी
निश्चित कर देगा चौखट
सर जहां झुकाना

पूरे घर मे
कई पटाखे फूट रहे हैं
माँ कहती है
अब आई है जान
बुढ़ापे की लाठी मे
बाबा ने
इक सांस भरी है
ले अंगडाई

मेरे सपनों के आंसू
टपके टपके हैं
कितनी लहरें
पटक रही सर
चट्टानों पर
इस समुद्र मे
बूँद कोई
आये या जाये
हहराता ही रहे
सदा ये
बूंदों का सपना भी
क्या सपना होता है

Monday, May 28, 2012

सुन कमली

सुन कमली 
मैं भी चिंतित हूँ 
मैं ही क्या 
टोली की टोली 
पिली हुई है 
ढूंढ रही है 
क्या होते हैं 
लोग-लुगाई 


छील रहा हूँ 
प्याज के छिलके 
प्याज छीलते 
आये आंसू 
ये लिख दूंगा 


बढे हुए नाखूनों को 
काटूँगा थोडा 
जिंदा नाखूनों का कटना 
दर्दनाक है 
ये लिख दूंगा 


खुजली सर मे ही क्या 
पूरा बदन खुजा कर 
छील ही लूँगा 
शायद खून छलक आयेगा 
खून लिखूंगा 
मेरी खुजली मिट जायेगी 


कमली सुन 
ये हरी लूगड़ी
एक घाघरा छींट दार भी 
देना मुझ को 
देख इसे मैं 
कैसे परचम बनवाता हूँ 
हरी लूगड़ी ब्रांड बनेगी 
तुझे सुच्चिकन पन्नों वाली 
मेगजीन के 
मुख पर 
छपवाऊंगा इक दिन 
मेरा कद 
कुछ बढ़ जायेगा 


सुन कमली 
मैं फिर आऊंगा 
तुझ से मिलने 
मुझे पता 
तू वहीँ मिलेगी 
फटी लूगड़ी मे 
टांका लगवाती होगी 

Friday, May 25, 2012

shabd -yaatra


शब्द खोखले 
शब्द लिजलिजे 
शब्द गुनगुने 
शब्द अनमने 
करें शब्द को तार-तार अब 
पूछें,अर्थ कहाँ छोड़ा है 
वही अर्थ 
सीधा सादा सा 
हाथ पकड़ ले 
साथ टहल ले 
पीठ खुजा दे 
करे गुदगुदी 
चाहे घाव हरे कर दे,पर 
वार केरे तो सीधा मारे 

शब्द गुलगुले से मीठे हों 
मंतव्यों की लिए श्रृंखला
निहित कहीं कुछ
गूढ़ बहुत सा
कई झरोखे 
 महराबें कुछ 
कपट-द्वार भी 
बहुत कंगूरे 
दूर दूर तक
खुदी सुरंगे
ऊबड़ खाबड़ से 
रस्ते कुछ 

तत्सम,तद्भव 
ढूँढें उद्भव 
शब्द नहीं जब 
शब्द स्वयं ही 
स्खलित अर्थ का 
अर्थ भला क्या 

शब्द अगर
बेजान हुए हैं
शायद पौरुष भी
बीता  है
कहीं कोख मे
सूनापन है
ममता का
आँचल रीता है  




Monday, May 14, 2012

bonsaai

गमलों मे 
कब पेड़ पनपता 
कोई बोनसाई ही होगा 
पेड़ नहीं 
तदरूप और विद्रूप 
भले हो 
बौनी ताकत
छाया,फल कब दे पाएगी 
किसी बेल को 
कहाँ सहारा मिल पायेगा
कहाँ बसेरा ले पायेगा
कोई पखेरू
प्राण-वायु मुट्ठी भर भी
जो दे ना पाए
क्या करना है
इन पेड़ों का
जीवन का स्पंदन धडके
ऐसे पेड़ों को
गमलों से आजाद करें अब
नहीं चाहिए
ड्राइंग रूम की शोभा केवल
कई ज़मीनी बातें
अब जीनी ही होंगी
गमले टूटेंगे
तो ही
पनपेंगे पक्का
कुछ विशाल वट वृक्ष
वही आश्वस्त करेंगे

Friday, May 4, 2012

sapna

गदबदे बच्चे सा वो 
अनमोल सपना 
रात मेरी गोद बैठा 
फिर पकड़ उंगली मेरी 
डग भर चला था

एक ललछौंही ललक सा
फिर लपक कर
डाल कर मेरे गले
छोटी सी बाँहें
देर तक लिपटा रहा
आश्वस्त करता
फुसफुसाया फिर
मैं हिस्सा हूँ तुम्हारा
इक महक बन
रम गया हूँ
बीज हूँ मैं
ढूंढ भूमि उर्वरा अब
मैं फलूँगा

इक इबारत हूँ
मुझे लिख
आसमां पर
मैं बरस जाऊँगा इक दिन
गा उठेगी
ये धरा भी
पाल मुझ को

थपकियाँ दे
मत सुला
जागा रहा तो
जिंदगी के अर्थ
तुझ पर खोल दूंगा

मैं हूँ कुंजी
हूँ इशारा
साथ ले मुझ को
चला चल
बंद दरवाज़ों के
पीछे क्या
तुझे बतला सकूंगा

Thursday, May 3, 2012

सुन गोविंदा

सुन गोविंदा 
भिखमंगों की इस टोली को 
कैसे तू संतुष्ट करेगा 
कैसे सिद्ध करेगा 
दाता इक तू ही है 
ऐसे वैसे 
कैसे कैसे 
जैसे तैसे 
सभी डटे हैं 
मांग पत्र की फोटोकॉपी 
सब हाथों में 

तुझे समर्पित 
पत्र पुष्प ये 
पान ,इत्र के फाहे 
तुलसी,गंगाजल ये 
झांकी ये छप्पन भोगों की 
एक लिसलिसी लार सने हैं 

कौन आया है 
तुझ से मिलने 
सब तुझ को 
केसिनो समझें 
दांव लगाते 
एक लगा कर 
शायद लाख बना पाएंगे 

नहीं चाहता बनूँ 
भीड़ का हिस्सा 
फिर भी 
मन पापी है 
चोरी चोरी 
देख रहा 
छप्पन भोगों को 

सच्चा है 
आँखों का खारा पानी 
फिर भी 
लाओ इन से 
चरण पखारूँ

Tuesday, April 17, 2012

सच के चूहे

सच कहना कुछ खतरनाक है
ये पक्का था
बहुत कुलबुलाता रहता था
मगर वो कीड़ा
इक हांडी में गाड़ दिया
घर के पिछवाड़े
और सजा दी
इक सुन्दर सी फुलवारी भी
वहम भरी तितली
मंडराती ही रहती थी

सच के कीड़े
कुछ दर्दीले
कई कंटीले और पनीले
बन जाते हैं
झबरीली पूंछों के चूहे
कुतर गये वो
गढ़ी गयी
समतल,चिकनी
रपटीली सतहें
कुतर गये
कुछ घिसे गये
कोनों की आभा
रेगमाल की रगडें खा कर
एक सुच्चिकन
इक मनभावन
देह लिए जो
रातों होड किया करते थे
इन तारों से

क्या कुतरा है
झूठ लिथडता ही रहता है
जैसे उधड़ा फाल
पुरानी साड़ी का हो

सच के चूहे शायद कुतरें
अंधकार भी
झाँक रहा हो
जिस के पीछे
नन्हा सूरज
सच का पैरोकार
रौशनी का हामी भी 

Saturday, April 14, 2012

एक गज़ल

मत करो तीखे सवाल
बेवज़ह होगा बवाल

यूँ कहाँ किस्मत पलटती
छोड़,मत सिक्का उछाल

कीमती कुछ तो मिलेगा
याद कि सलवट खंगाल

अब मदारी बेवज़ह हैं
चल ज़मूरे पर निकाल

तल्ख़ आपाधापियों में
क्या हराम औ क्या हलाल

इक नया सूरज तलाशो
ये अंधेरों का दलाल 

Wednesday, April 11, 2012

jaan ramdhan


दांव लगाता इक सटोरिया 
जिंस कई गायब हो जाती
 बिक जाती धनिया की हंसुली 
मंगल सूत्र लरजते कितने 
उठापटक होती शेयर की 
धमा चौकड़ी बाज़ारों में 
सोने सी फसलें खेतों में 
खड़ी खड़ी मिटटी हो जाती 
हरे भरे कुछ बाग बगीचे 
बच्चों की थोड़ी किलकारी 
कुछ जवान सपने सिन्दूरी 
हांड़ी में खिचड़ी की खदबद
सब सहमे से 
और गाय की आँख 
उदासी से भर जाती 

सूखे आंसू लिए रामधन
 किस  को कोसे 
धरती ने भरपूर दिया है 
किस जादू से उस का सोना
मिटटी होता 
सर में सींग  उगाए 
थोड़े पेट थुलथुले
 एक फोन पर ले उड़ते 
रोटी की थाली 
प्याज मिर्च तक गायब कर दें 

जान रामधन
कमोडिटी एक्सचेंज का डिब्बा 
क्यों हँसता है

kya kya janen

बस इतना ही
जानो मित्रों 
जिसे जानना 
बहुत जरूरी 
अधिक जानना 
खतरनाक है 
मत देखो 
खिडकी से बाहर 
परदे के पीछे 
मत झांको 
नींव लिजलिजी
क्या देखोगे
तहखाने
वीभत्स मिलेंगे
कोने बहुत
घिनौने होंगे
पार धुंए के
घुटन मिलेगी
कोहरे की चादर
में लिपटी
आधी कही
कहानी होगी
अगर गलीचा
भी झड्काया
छनी छनाई
धूल मिलेगी
पार क्षितिज के
किस ने देखा
शून्य कोई
सुनते आते हैं

इक मरीचिका
जीना अच्छा
सुनो मित्र
ऐसा करते हैं
शतुरमुर्ग से
करें दोस्ती
कछुए को
ज्ञानी स्वीकारें

Sunday, April 8, 2012

रिश्ता

रिश्ता जैसे खारा तूम्बा 
चित्ताकर्षक 
जैसे पीली गेंद चमकती 
जैसे एक खिलंदड बच्चा 
पल भर भी ना टिक कर बैठे 
सोने कि इक ठोस डली सा 
बहुत लुभाता 
पर काटो तो 
कड़वाहट से मुंह भर जाता 

रिश्ता जैसे रसगुल्ला है 
मीठा मीठा 
गप गपा गप 
रस में डूबा 
इतना ही बस 
एक चिपचिपाहट छोडेगा 
एक बूँद फर्श पर इस की
कई चींटियों को न्योता है 

रिश्ता आक और सेमल सा 
पंखों वाले बीज लिए है
उड़ जायेगा 
हाथ न आये 
जम जायेगा दूर देश में 
बन जायेगा पेड़ भी कोई 
छाया मगर कहाँ मिलती है  
पेड़ अगर हो दूर देश में 

दूध और पानी सा रिश्ता 
बहुत कठिन है 
अलग अलग कर पाना 
फिर भी 
जरा आंच पर रख कर देखो 
उड़ जायेगा सारा पानी 

रिश्ता आदिम 
जंगल जैसा 
इक दूजे से अलग 
परस्पर निर्भर फिर भी 
पनपेगा पर्याप्त जगह में 
धूप,हवा,पानी सब साझे 
साझे मौसम के फटकारे 
ज्वालामुखी फटा गर कोई 
लावा जम कर 
फूल बनेगा 

Sunday, April 1, 2012

zurm


चौराहे पर इक सपना गर 
क़त्ल हो गया 
ठंडी लाशें अगर 
घरों में घूमा करती 
खिल खिल करती लड़की 
गूंगी गुडिया बनती 
तकिया गर सिसकी सिसकी 
धधका करता है 
शब्द बाण से घायल होती 
रोज जवानी 
एक भयावह सपने जैसा 
बिस्तर हो जब 

इक बूढा बरगद सोचे 
जीना मजबूरी 
छाला छाला पाँव 
हाथ लकवा मारे से 
छाती जैसे टनों बोझ के
तले दबी हो 
जगती का कल्याण मनाती 
वेड ऋचाएं 
थर्राती हो 
घर के दरवाजे आने से 

इक बर्फीली नदी जमी हो 
आँगन में जब 
इक उदास सा नीम खड़ा हो 
मुंह लटकाए 
सोन चिरैया गाती रहती 
शोक गान सा 
काली कुतिया 
गली गली रोती फिरती है 
इक हारा सुलगा करता है 
चुपके चुपके 

हां सारे हैं जुर्म 
मगर परिभाषित कब हैं 
दंड संहिता चुप्पी साधे 
मुंह फेरे है 

bhadbhuje

ठान लिया था सब ने
वो अवतार सरीखे
आये हैं अहसान जताने
धरा धाम पर
मूंग दलेंगे
इंसानी छाती पर वो ही
बहुत कुशल भौंहे
उतनी ही चपल उंगलियां
धडकन धडकन नृत्य करे तो
ताल पे उन की
हर बिसात पर मोहरे
वो ही सजा सकेंगे
जीत हार का अर्थ भला क्या
चालें चलना
शगल पुराना
चालें उन की
और सभी मोहरे
या दर्शक
ताल पे नाचें
ताली पीटें

भडभूजे कुछ
भाड़ झोंकते
बोला करते
हे अवतारी
समय मिले तो
भाड़ पे आना

teen paat dhaak ke

लोक लुभावन
फूल खिला है
फिर पलाश का
सूर्ख दहकते अंगारे सा
भ्रम उपजाता
आग लगी हो जैसे कोई
इस जंगल में
कितनी ही आशाएं विकसी
साथ में इस के
डाल गले में बांहे इस के
झूमा करती
पत्ती पत्ती पर
लिख डाले नाम सभी ने
बाँध दिए धागे कच्चे
मन्नत के कितने
अंगारों सी दहक लाल को
सब ने ही तो जी कर देखा

कौन जानता था
वो केवल एक ढाक है
जिसके होते
तीन पात ही

Wednesday, March 28, 2012

he avtaari

ठान लिया था सब ने
वो अवतार सरीखे
आये हैं
अहसान जताने
धरा धाम पर
मूंग दलेंगे
इंसानी छाती पर
वो ही
बहुत कुशल भौंहे
उतनी ही चपल उंगलियां
धडकन धडकन
नृत्य करे तो
ताल पे उन की
हर बिसात पर
मोहरे
वो ही सजा सकेंगे
जीत हार का अर्थ भला क्या
चालें चलना
शगल पुराना
चालें उन की
और सभी
मोहरे या दर्शक
ताल पे नाचें
ताली पीटें

भडभूजे कुछ
भाड़ झोंकते
बोला करते
हे अवतारी
समय मिले तो
भाड़ पे आना

Tuesday, March 13, 2012

बातों की बात

चलो चलो रे
बातें कर लें
खट्टी-मीठी
धुंधली-उजली
अर्थवान कुछ
बहुत निरर्थक
कुछ दैहिक
कुछ देह पार की
बातें ऐसी
जिन बातों का
छोर नहीं हो
रंग-बिरंगी
कर्कश-मद्धम
दूर तलक जाने वाली भी
कही अनकही सारी बातें
और नहीं जो कह पाए वो
कुछ कनबतियां
एक फुसफुसाहट शर्मीली
अस्फुट से स्वर
कानाफूसी

कुछ सन्नाटा बरपाती सी
और तोडती कुछ सन्नाटा
खादी की
मखमल की बातें
थोड़ी हों ताजा मक्खन सी
थोड़ी दूध उफनने की भी
एक बात जंगली फूलों की
इक पराग
मधुमक्खी की भी
एक चहकती चिड़िया की हो
एक फुदकती कोई गिलहरी
बात सियारों की भी होगी
और दहाडें बाघों की भी

बातों में से
बात निकालें
यूँ बतियायें

थोडा सा आकाश तोड़ लें
धरती का कोना छिटका लें
किसी पेड़ की टहनी तोडें
किसी घोंसले से दो अंडे
बीज कहीं से
रंग बहुत से
सुर भी हों कुछ
ताल और लय पूरी पूरी
गंगाजल की शीशी कोई
और समंदर का खारापन
आग मांग लेंगे चकमक से
धीरे धीरे
दुनिया फिर से बस जायेगी

बातों बातों में फिर
पक्का हो जायेगा
अब सींचेंगे
हम बतरस ही
कोई बतकही
नहीं चलेगी
और बतंगड शब्द न् होगा
नहीं चलेगा
कोई अबोला
बोल बोलना
वर्जित होगा
बस होंगी
समवेत बोलियां

बातों के हंटर
बातों के अग्निबाण भी
बातों के गुब्बारे
बातों के हरकारे
बातों के सौदागर
बातों के कारीगर
कानों के कच्चे
कुछ टुच्चे
कनफूंके भी
सभी निरर्थक हो जायेंगे

शब्द खोखले
कब होंगे तब
बातों की बस
बात चलेगी

Tuesday, February 28, 2012

main arjun

मैं वही अर्जुन
वही फिर प्रश्न मेरे
क्या करूँ ?
और
क्या करूँ ना ?
फिर वही रणक्षेत्र
बजती दुन्दुभि है
शंख फूंके जा रहे
जयघोष गूंजे
सब डटे हैं
और डटे हैं प्रश्न मेरे
मैं हूँ कि
फिर पूछता हूँ
तुम हो जब कर्त्ता,विधाता
जब सभी कुछ
मात्र इच्छा है तुम्हारी
फिर भला क्यों
काल में हर
हो रहे कौरव
क्यों भला हो
धूत क्रीडा
छल से ले जाये
कोई भी
हाथ का इक कौर तक भी
और
हो लज्जा- हरण
हाथ बांधे
देखते हों
भार हो जिन पर
कि
तय करते
उचित-अनुचित
तौलते व्यवहार
करते ये सुनिश्चित
हो न् मर्यादा उल्लंघन

मानता हूँ
ध्वंसकारी युद्ध नियत हो
फिर
रह पाना तटस्थ दुष्कर
क्लीवता है
मात्र दर्शक ही बने रहना
तर्क दे कर भी
न् कर पाये थे तुम
सन्नद्ध मुझ को
फिर कहा था
इक शरण मेरी ही आ जा
त्याग चिंता
ये कोई सम्मोहिनी थी
और थी आश्वस्ति
कि
मैं त्याग चिंता
हो गया सन्नद्ध
फिर भी
प्रश्न मेरा
फिर खड़ा है
जब तुन्हें ही वहन् करना
योग क्षेम
फिर मुझे क्यों
लग रहा है
हाथ से इक कौर छिनना
और होना यूँ हनन
अधिकार का भी
धूत क्रीडा के छली
कैसे बने हैं
और यूँ लज्जा-हरण
क्यूँ हो रहा है
मात्र लीला नाम दे कर
पिंड छूटेगा नहीं
संत्रास से तो
है न् ये माया
कि मैं पीड़ा भुगतता

वास्तव में
कृष्ण तुम तो कृष्ण
हो विधाता
मैं तो अर्जुन मात्र
मेरे प्रश्न
मुझ को सालते हैं
मैं सखा हूँ
कर कोई उपचार ऐसा
युद्ध ना अब
शांति से ही
और सुलह से
हो सभी भ्रम का निवारण
तुम कि जब
मायापति हो
हो निवारण सब छलों का
क्यों पड़े तुम को भी आना
कर नहीं सकते
कुछ ऐसा
हो स्वयं ही
सत्य कि जय
ना छली हों
ना बली हों
युद्ध ही उपचार क्यों
श्रंखला ये
घोर कर्मों की
ही निर्णय क्यों करेगी
क्यों कहा फिर
ज्ञान है और भक्ति भी है
कर्म करना ही
नियति है
कर्म भी फिर
प्रेम ममता
और दया ही
क्यों नहीं हो ?
द्वंद्व ही क्यों
क्या समन्वय का
नहीं कोई ठिकाना
शस्त्र ही उपचार क्यों
होता है अंतिम
क्यों नियत है
हर सृजन
संहार पर ही

प्रश्न शाश्वत और
तुम भी
लौटता हूँ मैं ही
ले कर
काल में हर
नियति मेरी
मैं मनुज हूँ
और हूँ
वश में तुम्हारे
एक माया
एक छलना
कृष्ण सुन लो
एक दिन पक्का सुनिश्चित
देख लूँगा पार मैं
उसी दिन
तुम भी कह दोगे
कहाँ तुम दूर मुझ से

एक दिन
सामर्थ्य मेरी
कह उठेगी
एक अर्जुन
आज से अब
कृष्ण होगा

Saturday, February 25, 2012

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे'में संकलित

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे' से

बिना बात की बातें कब तक
सोई जागी रातें कब तक

इक पूरा जीवन जीना है
हर कोने से घातें कब तक

जश्न अगर हो पूरा तो हो
बिन बाजा बारातें कब तक

इक लट्टू है,एक झुनझुना
माने ये सौगातें कब तक

सहरा की किस्मत भी बदले
थकी थकी बरसातें कब तक

कोई तो सच का हामी हो
पागल हुई जमातें कब तक

आदम होने का हक माँगा
नापेंगे औकातें कब तक

अगर वजीरों से हो,तो,हो
इन प्यादों से मातें कब तक

मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे' से

अब जिंदगी के मायने क्या,सोचता तो हूँ
जब झूठ है रवायत,सच बोलता तो हूँ

बेरंग आसमां में आंधी का जोर है
माहौल की घुटन को कुछ तोड़ता तो हूँ

बस्ती तो जैसी पूरी साँपों ने सूंघ ली
चाहे डरा हुआ हूँ,दर खोलता तो हूँ

कितने निजाम ए काफिर अब तक तो हो लिए
ईमान की गली में मैं डोलता तो हूँ

चुप्पी चलन पुराना,मुंह फेरना अदा
है बेहया हिमाक़त, मैं टोकता तो हूँ

आलम खुमारियों का,मस्ती का दौर भी
जब डंक सा चुभा हूँ,झकझोरता तो हूँ

Wednesday, February 15, 2012

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे'में संकलित

जब वहम उस का यकीं बन जायेगा
वो कमां सा बेवज़ह तन जायेगा

चार पांसे वक्त के सीधे पड़े
आदमी से वो खुदा बन जायेगा

आदमी फौलाद सा दिखने लगे
गर मुकाबिल हौसला ठन जायेगा

बाप शामिल हो गया है दौड में
देखिये बच्चे का बचपन जायेगा

एक कीचड़,एक काजल कोठरी
आजमा लो,सर तलक सन जायेगा

हांडियों में आजमा कर देख लो
सब शरीफों का बड़प्पन जायेगा

Friday, February 3, 2012

बस यूँ ही

मन कहाँ फगुनाता है
अब फागुन में
पनिया जाता है कभी
बिना सावन के भी

मौसम से टूटा रिश्ता
पिछले कई मौसमों के
आंसुओं को ढोता
याद करता है
निम्बोली की
मीठी कड़वाहट
फर्क याद करता है
नीम और आम के बौर में
खुलता है
पाले से जले
आक का सकुचाते हुए
धीरे धीरे विकसना

याद जीने लगी है
मरा तो होगा कुछ
मौसम ?
मन ?
रिश्ता ?

Wednesday, January 25, 2012

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे'में संकलित

सांस मेरी और पहरा आप का
ये फक़त अंदाज़ ठहरा आप का

रेत के जाये है,हम तो रेत से
सोचिये,गर हो ये सहरा आप का

फाड कर दामन हमारे सी दिया
लीजिये परचम सुनहरा आप का

पीढियां गुजरीं है,कोशिश छोड़ दो
हम न सीखेंगे,ककहरा आप का

हो गए कुर्बान हम जी जान से
क्या गज़ब मासूम चेहरा आप का

चीखता हूँ मैं,मेरा अधिकार है
हो भले ही गाँव बहरा आप का

Friday, January 13, 2012

chaupal aur ek ladki

चौपाल में
एक हुक्का था
एक अलाव था
सफ़ेद दाढ़ियाँ थी
ढेर सारी कहानियाँ थी
कुंआरे सपने थे
और बहुत सारी ऊष्मा थी

ऊष्मा
-दोस्ती की
-प्यार की
-ज़िन्दगी की

एक लड़की वंहा रहती थी
खिल खिल हंसती थी
हुक्के में जलती थी.
वो कोई तार थी
बहती थी हरारत जिस में ज़िन्दगी की

वो कोई झरना थी
जो छु आती थी गाँव के घर -द्वार को.
या थी वो हवा
जो बह लेती थी चारोँ ओर से
नहीं थी कोई रोक उसके लिए

चूँकि लड़की रहती थी गाँव में
इसलिए गाँव गाँव नहीं था,घर था.

एक दिन आ बसा एक ब्रह्मराक्षस
गाँव के पास ,नीले पहाड़ पर.
ले उड़ा एक दिन उस खिल खिल करती लड़की को.

तब से उस गाँव में
नहीं जलता अलाव
बंद हो गया हुक्का
आग बँट गई चूल्हों में.
पथरा गया गाँव

खत्म हो गयी हरारत गाँव की.
तब से गिर रही है बर्फ गाँव में
रोज़ गिरती है,गिर रही है लगातार
पहुँच रही है लोगों के बिस्तरों तक .

छोड़ गई लड़की
सूनी चौपाल
ठंडा अलाव
पथराया सर्द मौसम
बर्फ टपकाता हुआ !

Wednesday, January 11, 2012

ek taaja gazal

एक बादल है बरस कर जायेगा
आसमां कब रोज ये दोहरायेगा

खोल मत उलझी हुई ये रस्सियाँ
जो सिरा पकड़ा वही उलझायेगा

वक्त भागा जा रहा,थमता नहीं
नींद में बुड्ढा कोई बर्रायेगा

कल सुनहरी,हर नजूमी कह रहा
एक सपना कब तलक भरमायेगा

आसमां कब है पतंग को साधता
डोर का झटका,ज़मीं पर लायेगा

ये जरा सी बात मैं समझा नहीं
दिन चढेगा और फिर ढल जायेगा

Friday, January 6, 2012

अँधेरे में चमकती आँख

आओ
एक ढकोसला रचें
एक ढोंग जियें
मैं अटका दूँ तुम्हे
कुछ बिम्बों में
तुम चिपका दो
मुझ पर
कुछ उपमाएं

शब्दों की
पिंग पोंग खेलें
लपेट कर देखें
खिलखिलाती चांदनी
उघाड़ कर देखें
गुनगुनी धूप

प्रतीक बना दें
पेड़,फूल,चिड़िया को
बखिया उधेड़े
अमलतास,हारसिंगार की
मांसल पेड़ों की
टहनियों पर झूलें

झीने आवरण दें
नंगी लालसा को
पढ़ें
मरमरी,आबनूसी रंग की
इबारत

दिवालिया अहसासों की
बैलेंस शीट से
करें खुराफ़ात

शायद जान पायें
हम भी
अँधेरे में चमकती
आँख का अर्थ

Sunday, January 1, 2012

khushaamdid

मेरे अभिमन्यु
समय नहीं बदला है
अगर जन्म लेना ही है ,तो जान लो
दुनिया अब अधिक शातिर हो गई है

शकुनी अब पांसे ही नहीं फेंकता
ताल ठोकता है मैदान में
द्रोण , कृप ,भीष्म ,कर्ण और
अश्वत्थामा के कई कई संस्करण
रथी, अतिरथी और महारथी
सन्नद्ध है
अपने दिव्यास्त्रों एवं दिव्यपाशों के साथ
तुम्हारे जन्म के पहले से ही

ना जाने कितनी दुरभिसन्धिया
और सवालों के काफिले
प्रतीक्षारत है तुम्हारे लिए
तो अगर जन्म लेना ही है अभिमन्यु

सीख लो गर्भ में ही
चक्रव्यूह काट फेंकना
ढूंढ लो ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर
मत भरमाना अभिमन्यु
इन ख्यातनाम पदकधारी
तथाकथित वीरों की वीरता से

मायावी और छलनामयी शक्तियों से
नहीं भटकती वो आंख
जो पहचानती है लक्ष्य को
वस्तुतः बहुत कायर है
ये दिव्यास्त्र ,ब्रह्मपाश ,नागपाशधारी

वीरता जन्मती है अन्दर से
शसत्रास्त्रों से सज्जित होते है कायर ही
बहुत आसान है चक्रव्यूहों का भेदन
और शस्त्रास्त्रों की काट

जरुरत है महज़ एक इच्छा की
निष्कपट ,निष्कलुष ,ज्वलंत इच्छा की
व्यक्तित्व ,मन ,प्राण को अग्निमय
करती इच्छा की

बहुत है बस एक सात्विक प्रण
कि मैं पहचानता हूँ
उद्देश्य मेरे आने का

तो भेदों चक्रव्यूह
काटो पाश
जन्मो स्वागत अभिमन्यु
खुशामदीद

ek gazal

बदमज़ा है जिंदगी,रंगीन अफ़साने तलाश
बस जुनुं ही जी सकें जो ऐसे दीवाने तलाश

ख्वाब की किरचें चुभें क्यों जानना मुश्किल नहीं
याद की अंधी गली में गुम वो तहखाने तलाश

दिल कहाँ अब हाथ तक मिलना भी मुश्किल हो गया
सर्द हाथों की वज़ह कमज़र्फ दस्ताने तलाश

यूँ नही आ पायेंगे हालात ये मामूल पे
जो ज़हर ही बाँटते हों ऐसे मयखाने तलाश

ये मशीनी सी इबादत और कितने दिन भला
सर झुके,मजबूर हो,अब ऐसे बुतखाने तलाश

खूबियां कमियां भला क्या देखना इस दौर में
आदमी को मापना है और पैमाने तलाश