Tuesday, April 17, 2012

सच के चूहे

सच कहना कुछ खतरनाक है
ये पक्का था
बहुत कुलबुलाता रहता था
मगर वो कीड़ा
इक हांडी में गाड़ दिया
घर के पिछवाड़े
और सजा दी
इक सुन्दर सी फुलवारी भी
वहम भरी तितली
मंडराती ही रहती थी

सच के कीड़े
कुछ दर्दीले
कई कंटीले और पनीले
बन जाते हैं
झबरीली पूंछों के चूहे
कुतर गये वो
गढ़ी गयी
समतल,चिकनी
रपटीली सतहें
कुतर गये
कुछ घिसे गये
कोनों की आभा
रेगमाल की रगडें खा कर
एक सुच्चिकन
इक मनभावन
देह लिए जो
रातों होड किया करते थे
इन तारों से

क्या कुतरा है
झूठ लिथडता ही रहता है
जैसे उधड़ा फाल
पुरानी साड़ी का हो

सच के चूहे शायद कुतरें
अंधकार भी
झाँक रहा हो
जिस के पीछे
नन्हा सूरज
सच का पैरोकार
रौशनी का हामी भी 

1 comment:

Anonymous said...

अतिसुन्दर! भाई सा...