Thursday, May 9, 2013

gazal


रोज उगे पूरब से इक घसियारा दिन
डूब मरे पश्चिम में फिर बेचारा दिन

अटक गया उग कर बस जिस की साँसों में
लाख जतन कर उस ने पार उतारा दिन

नक़द ज़िन्दगी पल भर जी कर मैं देखूं
काश कहीं से मिलता एक उधारा दिन

छत पर जाने कितना चुग्गा डाल चुके
उड़ कर वापिस कब लौटा दोबारा दिन

आज नहीं तो कल होगा निश्चित जानो
किरण किरण इक बिखरेगा उजियारा दिन

Monday, December 10, 2012

kavita

सर्वश्रेष्ठ कवितायेँ 
कलम दवात से 
कागज पर नहीं लिखी गयी 
दरअसल वो कभी भी,कहीं भी 
नहीं लिखी गयी

वो बस जी गयी थी
आंसू,पसीने और खून मे
अलग अलग काल खण्डों मे
धरती के केनवास पर
विभिन्न रंगों,रूपाकारों मे
बिखर गयी थी कविता

चुटकी भर नमक सी
मुट्ठी भर रेत सी
बांहों भर इंद्रधनुष सी
छा गयी थी आसमान पर
बरस गयी थी
छिपे कोनों मे

कह दी गयी थी
एक थपकी से
तिरछी नज़र से
बेबस निगाह से
धरती कुरेदते अंगूठे से
बैठे कलेजे से
माथे पर रखे हाथ से
सिसकी से
हिचकी से
तलवार से
हल से
फांसी के फंदे से

कहाँ कहाँ
अभिव्यक्त नहीं हुई कविता
बस नहीं आ पाई
कागज पर 

Sunday, December 9, 2012

ek gazal

बोलती खामोशियाँ भी 
ऊबती नजदीकियां भी 

सर चढ़े वैताल सी हें 
बेवज़ह मायूसियाँ भी 

जागती आँखें पनीली 
अल सुबह सरगोशियाँ भी 

लौटती हें घूम फिर कर 
जी गयी नादानियाँ भी

हें पहाड़ों की कशिश मे
रेत सी आसानियाँ भी

मौत थी या जिंदगी थी
वो मरी मरजानियाँ भी

मानता सौगात है वो
दी गयी कुर्बानियाँ भी

Monday, November 5, 2012

रंग रंग


सूरज का नजला
जितना गिरा
उतनी ही रंगों ने करवट ली
मिटटी का स्वाद,जीभ नहीं
रोम लेते हें
बदल देते हें
धूसर को हरे में

जितने बवंडर उठे
उतने ही धंसे रंग
गहरे और गहरे
पैंदे पर जमे काले रंग को
खुरच खुरच कर
जब उतारा गया
सुनहरी आब ली रंगों ने

होली के रंग फिर भी उतर जायेंगे
दीपावली के इन दीपों का
सुनहरा रंग
खिलखिलाता है देर तक
इंद्र धनुष के रंग
गड्ड मड्ड हो कर
सफ़ेद नहीं होते
हज़ार गुणा होते हें
आँखों से नहीं मन से देखे जाते हें

कांपती लहरों पर
सूरज बिखर जाता है
खील खील
कांच के टुकड़ों सी किरणें
चुभती नहीं,गुदगुदाती हें

सुनो
रंग शास्त्रीय राग नहीं गाते
वो गाते हें
मांड,कजरी,चैती,बिरहा आल्हा
ताल मिलाते हें
भपंग और बाउल की खंजरी के साथ 

Wednesday, October 17, 2012

खुरुंड खरोंचे

खुरुंड खरोंचे
धरती खोदें
किसी पेड़ की
छाल छील दें
पिथ कर देंगे
इक मेंढक को
मर्म तलाशें
आक्यु पंक्चर की सुई के
नोक बनायें
बड़े जतन से
शब्द बाण की

तालाबों पर फैली काई
अंदर कहीं
फ़ैल जायेगी
खपरैलों में छिपी छिपकली
कब सर पर
आ कर टपकेगी
इक गोरैया
उड़ जायेगी

किसी जिबह होते
बकरे की आँख
आसमां से झाँकेगी 

वक्त की नदी

वक्त की बहती नदी ये
काटती रहती किनारे
लील जाती द्वीप कितने
नित्य खुलता
मोर्चा कोई नया ही
जीत होगी एक पर तो
दुसरे पर हार निश्चित

कब पलट ले धार
कर बंजर
निकल जाये कहीं से
कब बने
अल्हड जवानी
कब बने ये
धीर प्रौढा
कब कहाँ टसके
बुढ़ापे की कसक सी

जाल मछुआरे का भर दे
मछलियों से
या कि
अटका दे
कोई घड़ियाल
फाड़े जाल को जो
हो भंवर तिलिस्मी
कौन जाने

बस कि
इक तैराक कोई
जानता है
नाज नखरे इस नदी के
ढूंढ लेता है
नदी में
जलपरी के
वो सुनहरी पंख
इक दिन 

Sunday, September 23, 2012

खलिहान कि कविता

खलिहान से निकली
कविता को
होना चाहिये गुइंया
किसी टिकुली या
रंगीन लूगड़ी की
जाना चाहिये
पुरानी बही में लगे
अंगूठे को ढूँढने
सहलाना चाहिये
खांसते फेफड़ों को
चमकाना चाहिये
आँखों को
सितारों की तरह
घुमा देना चाहिये
पैरों को
लट्टू की तरह
पहन लेना चाहिये
ठसकेदार साफा

नहीं होना चाहिये उसे
काले हिरण या
चिंकारा की तरह
नहीं होना चाहिये
उजाड खँडहर में
उकेरी गयी
मूर्त्तियों की तरह
नहीं होना चाहिये
समुद्र में डूब कर
आत्म हत्या करते
अस्ताचलगामी सूरज की तरह

चाहिये न चाहिये
के बीच भी
कविता
तुम निकलते ही रहना
खलिहान से
सूर्योदय के साथ