वक्त की बहती नदी ये
काटती रहती किनारे
लील जाती द्वीप कितने
नित्य खुलता
मोर्चा कोई नया ही
जीत होगी एक पर तो
दुसरे पर हार निश्चित
कब पलट ले धार
कर बंजर
निकल जाये कहीं से
कब बने
अल्हड जवानी
कब बने ये
धीर प्रौढा
कब कहाँ टसके
बुढ़ापे की कसक सी
जाल मछुआरे का भर दे
मछलियों से
या कि
अटका दे
कोई घड़ियाल
फाड़े जाल को जो
हो भंवर तिलिस्मी
कौन जाने
बस कि
इक तैराक कोई
जानता है
नाज नखरे इस नदी के
ढूंढ लेता है
नदी में
जलपरी के
वो सुनहरी पंख
इक दिन
काटती रहती किनारे
लील जाती द्वीप कितने
नित्य खुलता
मोर्चा कोई नया ही
जीत होगी एक पर तो
दुसरे पर हार निश्चित
कब पलट ले धार
कर बंजर
निकल जाये कहीं से
कब बने
अल्हड जवानी
कब बने ये
धीर प्रौढा
कब कहाँ टसके
बुढ़ापे की कसक सी
जाल मछुआरे का भर दे
मछलियों से
या कि
अटका दे
कोई घड़ियाल
फाड़े जाल को जो
हो भंवर तिलिस्मी
कौन जाने
बस कि
इक तैराक कोई
जानता है
नाज नखरे इस नदी के
ढूंढ लेता है
नदी में
जलपरी के
वो सुनहरी पंख
इक दिन
1 comment:
वाह...
खूबसूरत रचना...
सादर
अनु
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