Monday, May 30, 2011

रेत और भी

रेत और भी
एक-
रेत का बगूला
उतना ही ऊंचा उठता है
जितना निर्वात होता है केंद्र में
वैसे ही जैसे
आदमी उतना ही ऊंचा उठता है
जितना शांत होता है अन्दर से

दो-

कोसों तक जब सिर्फ सन्नाटा गूंजता है
तब बजाता है आदमी
बांसुरी,अळगोजा
मोरचंग,खड़ताल
रावणहत्था या सारंगी
बहुत अकेला हुआ आदमी
तब गाता है रेत राग
तीन-
जेठ की घाम में
धू धू करता है रेगिस्तान
साँय साँय करती है लू
भांय भांय करता है सन्नाटा
फिर भी भेड़ का एक मेमना
बचा रहता है
भेड़ हो कर भी

चार-

रोहिडा खड़ा है
अग्नि रंग के
लाल नारंगी फूल लिये
रेत में आग कहाँ होती है
जैसे नहीं होता पानी
रोहिडा भी शायद
मरीचिका है

Sunday, May 29, 2011

रेत

रेत-एक

आंधियां कितनी भी तेज हों

रेत को आँगन में

कौन रखता है

बुहार दी जायेगी

आंधी बंद होते ही



रेत-दो



रेत कितनी भी

ऊंची हो जाये

टीला ही होगी

पहाड़ नहीं



रेत-तीन



चैत से जेठ तक

घूमती है रेत

पगलायी हुई

बैठ जायेगी

आषाढ़ी आकाश की

पहली बूँद के साथ



रेत-चार



वैज्ञानिक कहते है

रेगिस्तान पाँव बढ़ा रहा है

बढ़ रहा है रेगिस्तान

धरती के साथ साथ

हमारे मन में भी

Tuesday, May 24, 2011

इन्द्रधनुष

कितना मुश्किल है
रेगिस्तान में चटख हरा रंग देख पाना
धूसर टीलों के बीच
मटियाला या कलिहाया हरा रंग ले
खेजरी और रोहिडा खड़े है वीतराग सन्यासी से

जब प्रकृति उदास,धूसर,ऊदे
रंगों में लिपटी हो
तभी मानवी जिजीविषा होती है रंग-बिरंगी
रेत के उदास रंग नहीं तोड़ पाते
आदमी की रंगीन चाहों को

वो भरता है रंग पंचरंगे साफे में
सतरंगी ओढ़नी में
या फिर गूंथ लेता है
अनगिनत रंगों का गोरबंद.
छोटे छोटे सितारों जैसे कांच
जड़ देता है बिछौने में

रंग फिर झिलमिलाते है
छोटे छोटे सितारों में हज़ार गुना हो कर
लगता है जैसे बिखर गया है सूरज
खंड खंड हो कर
झिलमिला रहे है
हजारों इन्द्रधनुष
आदमी की चाहत के

कितना ही उदास हो रेगिस्तान का रंग
आदमी का रंग कभी उदास नहीं होगा
चाहतें ऐसे ही झिलमिलायेंगी
हजारों इन्द्रधनुष सी

Sunday, May 22, 2011

मात मिली

रस्ते रस्ते बात मिली
नुक्कड़ नुक्कड़ घात मिली

चिंदी चिंदी दिन पाए है
क़तरा क़तरा रात मिली

सिला करोड़ योनियों का है
ये मानुष की जात मिली

बादल लुका-छिपी करते थे
कभी कभी बरसात मिली

चाहा एक समंदर पाना
क़तरों की औकात मिली

जीवन को जीना चाहा पर
सपनों की सौगात मिली

वक़्त जहाँ मुठ्ठी से फिसला
यादों की बारात मिली

उस चौराहे शह दे आये
इस चौराहे मात मिली

Thursday, May 19, 2011

भोलू का बेटा

आसमां बिजलियों से जो डर जायेगा
फिर ये भोलू का बेटा किधर जायेगा

नींद में करवटें जुर्म ऐलानिया
जुर्म किस ने किया किस के सर जायेगा

जो बताया सलीके में क्या खामियां
एक अहसान सर से उतर जायेगा

ज्ञान पच ना सका वो करे उलटियाँ
जैसे बू से ये गुलशन संवर जायेगा

गालियाँ, प्यालियाँ,कुछ बहस,साजिशें
गर ये सब ना मिला वो पसर जायेगा

मुंह को खोलो नहीं, कस के सर ढांप लो
है ये तूफ़ान लेकिन गुज़र जायेगा

फालतू सब हुकूमत,निजामत ,बहस
गर ये भोलू का बेटा ही मर जायेगा

Saturday, May 14, 2011

नासूर है

फ़िक्रमंदों का अज़ब दस्तूर है
ज़िक्र हो बस फिक्र का मंज़ूर है

जो कभी इक शे'र कह पाया नहीं
वो मयारी हो गया मशहूर है

जो किसी परचम तले आया नहीं
वो नहीं आदम भले मजबूर है

मोड़ औ नुक्कड़ ज़हां के देख लो
ये कंगूरा तो बहुत मगरूर है

चन्द साँसों का सिला जो ये मिला
चौखटों की शान का मशकूर है

ये कसीदे शान में किस की पढ़ें
रोशनी की हर वज़ह बेनूर है

वो बहेगा दर्द देगा बारहा
फितरतन जो बस महज़ नासूर है

Friday, May 13, 2011

शाया हो गया

जो कहा,वो,कह न पाया हो गया

शब्द का सब अर्थ जाया हो गया



आदमी अब इक अज़ब सी शै बना

आज अपना कल पराया हो गया



बाप उस दिन दो गुना ऊंचा हुआ

जब कभी बेटा सवाया हो गया



ज़िन्दगी दी और सिक्के पा लिए

सब कमाया बिन कमाया हो गया



जब दिमागों की सड़न देखी गयी

आसमां तक बजबजाया हो गया



कल नये रंगरूट सा भर्ती हुआ

चार दिन में खेला खाया हो गया



अब खुदा वो वक़्त का कहलायेगा

अब गज़ट में नाम शाया हो गया

Tuesday, May 10, 2011

बेचारों सा है

घर तो है,दीवारों सा है
मन अपना बंजारों सा है

वक़्त की फितरत जाने क्या है
दुश्मन है पर यारों सा है

तौर-तरीके जैसे भी हों
अन्दर कुछ अवतारों सा है

उस को ज्ञानी कहती दुनिया
जो बासी अखबारों सा है

एक शख्सियत लगता है जो
माटी के किरदारों सा है

जिस को रब कहते आये हैं
कुछ धुंधले आकारों सा है

किस का दम भरते हो प्यारे
हर आदम बेचारों सा है

Sunday, May 8, 2011

पुछल्ले हो गये

जब से कॉलोनी मुहल्ले हो गये
लोग सब लगभग इकल्ले हो गये

दोस्ती हम ने इबादत मान ली
बस कई इल्ज़ाम पल्ले हो गये

भोक्ता,कर्त्ता सुना भगवान है
लोग महफ़िल के निठल्ले हो गये

ज़िक्र की पोशीदगी बढ़ने लगी
बात में बातों के छल्ले हो गये

बेअदब हो चाँद फिर मंज़ूर है
अब तो सब तारे पुछल्ले हो गये

Thursday, May 5, 2011

निशाना दिखता है

इक पल जीना इक पल मरना दिखता है
मेरा गिरना और संभलना दिखता है

इक बूढ़े चेहरे को पढ़ना आये तो
हर झुर्री में एक जमाना दिखता है

जब कोई गुलशन की बातें करता है
मुझ को बस इक नया बहाना दिखता है

एक कहानी नानी की सुन जो सोता
उसे ख्वाब में एक खज़ाना दिखता है

बिस्तर की सलवट को कितना ठीक करो
जब चादर का रंग पुराना दिखता है

कल तक वो सच्चा इन्सां कहलाता था
गलियों में जो एक दीवाना दिखता है

देख फिजा में ये दहशत का साया है
शहर नहीं अब गाँव निशाना दिखता है

Wednesday, May 4, 2011

मरीचिका

रेगिस्तान में पानी बहुत गहरा होता है
धरातल पर होती है सिर्फ मरीचिका
मृग और मानुष दोनों ही
दौड़ते रहते है मरने तक
उस पानी की तलाश में जो कहीं है ही नहीं

रेत को हमेशा ही दया आती है
दोनों की ऐसी अज्ञानी और भोली मौत पर
आँखों में रड़क कर
रेत देती रहती है प्रमाण
पानी के न होने का

नहीं चेतते पर मानुष या मृग
पानी की लुभावनी सम्मोहक प्रतिछवि
खींचती है लगातार
नहीं छोड़ पाते इस सम्मोहन को
मानुष या मृग दोनों ही

पानी जीवन है
पानी अर्थपूर्ण है
पानी सम्मोहन है
पानी आकर्षण है
किन्तु पानी की प्रतिछवि साक्षात् मौत है
ये नहीं समझ पाता आदमी

आभास को पानी समझ कर
रेगिस्तान में पानी के पीछे दौड़ता आदमी
ऐसे ही छला जाता है बार बार
जीवन की चाह सिर्फ मौत देती है
मरीचिका हंसती है
रेत विमूढ़ देखती है
कहती है
तू ढूँढता रहा पानी
ये जानते हुए भी
की रेगिस्तान में सच केवल रेत है
पानी हमेशा ही मरीचिका है

Tuesday, May 3, 2011

प्यार रेत से

शायद मैं कभी भी न लिख पाऊँ कोई प्रेम कविता
क्यों कि जितनी शिद्दत से महसूस किया जाता है प्रेम
उस से अधिक शिद्दत से महसूस करता हूँ मैं रेत को
मेरे इस दिव्य रिश्ते को मैं नहीं दे सकता
प्रेम कविताओं में प्रयुक्त
जूठे शब्द, प्रतीक और उपमाएं

रेत के मूर्त्त और अमूर्त्त चित्र
उकेरे हुए है मेरे अन्दर
मैंने पल पल जिया है
इन लुभावने चित्रों को
मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा है ये

मन के बहुत अन्दर तक पैठे है ये चित्र
मैं जानता हूँ
कोई सर्जन भी शरीर के अंग भले ही काट पीट ले
मन को काटना उसे नहीं आता

रेत कि थपकियाँ
रेत का सूना संगीत
रेत के टीले से लुढ़कने कि मस्ती
टीला दर टीला रेत की बस्ती
खोई खोई सी रेतीली शाम
जागी जागी सी नशीली सुबह
सब जिंदा है मुझ में

रेत के सौन्दर्य को जिया है जिस ने
लौट लौट आता है वो
लौटता हूँ मैं भी
रेत से प्यार जताने को
मैं भी रेत ही हूँ बताने को

Monday, May 2, 2011

मैं भी प्यार करता हूँ

क्यों गढ़े गये है बड़े बड़े शब्द
मेरे छोटे छोटे सुखों के लिये
शब्द वीरों की पूरी सेना
लड़ रही है मेरी रोटी के लिये

मैं तो रोटी का मतलब
इतना ही जानता हूँ कि माँ बना देती है
गरम गरम रोटियां और मैं खा लेता हूँ
मुझे नहीं पता रोटी के लिये
युद्ध होता है या गीत गाये जाते है
मेरे हिसाब से तो पसीना बहता है

कोई मेरे लिये लाठियां भांज रहा है
कोई बहुत दयालु हो कर आंसू बहा रहा है
पसीना कोई नहीं बहाता

मुझे हर बार बना दिया जाता है
अजायबघर में रखा कोई बुत
या चौराहे पर टंगा कोई इश्तिहार
झंडों,नारों,बैनरों,पोस्टरों के नीचे
मेरी पत्नी के लिये लायी चूड़ियाँ दब गयी है
रोटी के झंडाबरदारों को क्या बताऊँ
भाई बीवी से प्यार करना तो मुझे आता ही है

मैं पोस्टर नहीं हूँ
आदमी हूँ ,चाहता हूँ रोटी
थोड़े प्यार के साथ

Sunday, May 1, 2011

कानूनों का जंगल है

मेरे खातिर कानूनों का जंगल है
मेरे खातिर ये आलीशां दंगल है

वो बबूल का पेड़ दिखा कर कहते है
तेरे हक में तो प्यारे ये संदल है

मेरा सूरज ठंडा सर्द हवाएं है
मेरे हक में सिर्फ अधफटा कंबल है

जिनको चिंता करनी वो करते जाये
मैं क्या जानूं किस में मेरा मंगल है

वही टोटके बतलाते है जीवन के
जिनके दर्शन में भी एक अमंगल है

हाथ पकड़ते हाथ छोड़ते उम्र हुई
मेरा जीवट ही अब मेरा संबल है

दरबानों अब ये समझो ताकीद तुम्हे
मेरे हाथों में ताला है संकल है