रेत और भी
एक-
रेत का बगूला
उतना ही ऊंचा उठता है
जितना निर्वात होता है केंद्र में
वैसे ही जैसे
आदमी उतना ही ऊंचा उठता है
जितना शांत होता है अन्दर से
दो-
कोसों तक जब सिर्फ सन्नाटा गूंजता है
तब बजाता है आदमी
बांसुरी,अळगोजा
मोरचंग,खड़ताल
रावणहत्था या सारंगी
बहुत अकेला हुआ आदमी
तब गाता है रेत राग
तीन-
जेठ की घाम में
धू धू करता है रेगिस्तान
साँय साँय करती है लू
भांय भांय करता है सन्नाटा
फिर भी भेड़ का एक मेमना
बचा रहता है
भेड़ हो कर भी
चार-
रोहिडा खड़ा है
अग्नि रंग के
लाल नारंगी फूल लिये
रेत में आग कहाँ होती है
जैसे नहीं होता पानी
रोहिडा भी शायद
मरीचिका है
1 comment:
रेत और इसके इर्दगिर्द जिंदगी को देखने का अंदाज़ बहुत खूब है सर ....
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