मैं समझता था
शायद प्रेम कोई
गैस का गुब्बारा है
जिस में बैठ कर
छुआ जा सकता है आसमान
महसूस किया जा सकता है
स्वयं को उड़ते हुए
भरा जा सकता है
आसमान को बांहों में
या हुआ जा सकता है
आसमान ही
उड़ा जा सकता है
एक पंछी की तरह
स्वतंत्र,निर्भार ,मुक्त
शायद हुआ जा सकता है
समुद्र
ठाठें मारता हुआ
जो लहर लहर आ कर
भिगो दे
तन ही नहीं मन भी
शायद प्यार
बो देता है कोई बीज
मन में रजनीगन्धा का
जिस की गंध में
मत्त हो
गुजारी जा सकती है
ये छोटी सी जिंदगी
पर शायद तुम्हे
ज़रूरत एक खूँटी की थी
जिस पर टांग सको तुम
अपने उतारे हुए कपडे
और वापिस पहन सको
अपनी सुविधानुसार
तुम्हे आवश्यकता थी
एक ब्लैक बोर्ड की
जिस पर लिख सको तुम
अपने उपालम्भ,खीझ,उदगार
मिटा सको और पुनः लिख सको
जैसे जी चाहे
बिना ये सोचे कि ब्लैक बोर्ड भी
अगर सोच सकता तो
कैसा लगता उसे
या तुम्हे चाहिए कोई चाबी का गुच्छा
जो लटका रहे
तुम्हारी कमर से
बजता रहे तुम्हारी
पदचाप के साथ
देता रहे ताल
जिस से खोल सको तुम
वो संदूक
जिस में बंद है
तुम्हारे बचपन के कुछ खिलोने
और बहला सको खुद को
क्षमा करना प्रिये
मैं नहीं हो सका
आकाश,समुद्र या गंध
मैं नहीं हो पाऊंगा
खूँटी ,ब्लैक बोर्ड या चाबी का गुच्छा भी
Thursday, September 22, 2011
Friday, September 16, 2011
एक गज़ल
मैं बेचारा नहीं हूँ
थका हारा नहीं हूँ
ग़दर की जात का हूँ
महज़ नारा नहीं हूँ
गजर हूँ भोर का फिर
भले तारा नहीं हूँ
पढ़ो मज़मून हूँ मैं
मैं हरकारा नहीं हूँ
हूँ मालिक भी मणि का
ज़हर सारा नहीं हूँ
हूँ मीठा,हूँ कसैला
फक़त खारा नहीं हूँ
जो हूँ हक से हूँ प्यारे
तेरे द्वारा नहीं हूँ
थका हारा नहीं हूँ
ग़दर की जात का हूँ
महज़ नारा नहीं हूँ
गजर हूँ भोर का फिर
भले तारा नहीं हूँ
पढ़ो मज़मून हूँ मैं
मैं हरकारा नहीं हूँ
हूँ मालिक भी मणि का
ज़हर सारा नहीं हूँ
हूँ मीठा,हूँ कसैला
फक़त खारा नहीं हूँ
जो हूँ हक से हूँ प्यारे
तेरे द्वारा नहीं हूँ
Monday, September 12, 2011
प्यार करने के पार
बहुत अंतर है
प्रेम करने और
प्रेम में होने में
मैं प्रेम करता हूँ
तुम प्रेम में होती हो
मैं प्रेम कर रहा होता हूँ
तो शायद
जी रहा होता हूँ एक तलाश
मेरी अनंत प्यास
बार बार तुम्हारी देह
और देह के पार
ढूँढती है
इक मानसरोवर
और मैं हर बार
समुद्र का खारापन
मुंह में लिए स्वयं को
खुजली का मरीज पाता हूँ
मांसल या वायवीय
कोई अनुभव
नहीं बन पाता
इस प्यास की तृप्ति
क्यों की यह प्यास
मानसरोवर की है
और उस मानसरोवर के जल
का सिर्फ
रास्ता ही जाता है तुम से
कितना ही आरोपित करो तुम
सच यही है कि
मैं जो ढूंढ रहा हूँ
वो तुम नहीं हो
तुम में मुझे दिखाई देता है
उस का आभास
जो चाहिए मुझे
इसीलिए चाहता हूँ तुम्हे बार बार
मोहभंग भी
होता है बार बार
तुम भी जीना चाहती हो जो
वो नहीं है मेरे पास
वो भी कहीं है मेरे पार
मैं भी हूँ एक द्वार ही
और दो द्वार
एक दूसरे के भीतर से
नहीं निकल सकते
वही पार हो पायेगा
द्वार से जो नहीं रहेगा द्वार
झाँक कर देखेगा
उस पार
प्रेम करने और
प्रेम में होने में
मैं प्रेम करता हूँ
तुम प्रेम में होती हो
मैं प्रेम कर रहा होता हूँ
तो शायद
जी रहा होता हूँ एक तलाश
मेरी अनंत प्यास
बार बार तुम्हारी देह
और देह के पार
ढूँढती है
इक मानसरोवर
और मैं हर बार
समुद्र का खारापन
मुंह में लिए स्वयं को
खुजली का मरीज पाता हूँ
मांसल या वायवीय
कोई अनुभव
नहीं बन पाता
इस प्यास की तृप्ति
क्यों की यह प्यास
मानसरोवर की है
और उस मानसरोवर के जल
का सिर्फ
रास्ता ही जाता है तुम से
कितना ही आरोपित करो तुम
सच यही है कि
मैं जो ढूंढ रहा हूँ
वो तुम नहीं हो
तुम में मुझे दिखाई देता है
उस का आभास
जो चाहिए मुझे
इसीलिए चाहता हूँ तुम्हे बार बार
मोहभंग भी
होता है बार बार
तुम भी जीना चाहती हो जो
वो नहीं है मेरे पास
वो भी कहीं है मेरे पार
मैं भी हूँ एक द्वार ही
और दो द्वार
एक दूसरे के भीतर से
नहीं निकल सकते
वही पार हो पायेगा
द्वार से जो नहीं रहेगा द्वार
झाँक कर देखेगा
उस पार
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