Sunday, September 23, 2012

खलिहान कि कविता

खलिहान से निकली
कविता को
होना चाहिये गुइंया
किसी टिकुली या
रंगीन लूगड़ी की
जाना चाहिये
पुरानी बही में लगे
अंगूठे को ढूँढने
सहलाना चाहिये
खांसते फेफड़ों को
चमकाना चाहिये
आँखों को
सितारों की तरह
घुमा देना चाहिये
पैरों को
लट्टू की तरह
पहन लेना चाहिये
ठसकेदार साफा

नहीं होना चाहिये उसे
काले हिरण या
चिंकारा की तरह
नहीं होना चाहिये
उजाड खँडहर में
उकेरी गयी
मूर्त्तियों की तरह
नहीं होना चाहिये
समुद्र में डूब कर
आत्म हत्या करते
अस्ताचलगामी सूरज की तरह

चाहिये न चाहिये
के बीच भी
कविता
तुम निकलते ही रहना
खलिहान से
सूर्योदय के साथ


Sunday, September 16, 2012


जानता हूँ
जो थोडा सा
अतिरिक्त मांस
तुम्हे स्त्री बनाता है
वही मुझे पुरुष बनाता है

याद है
तुम्हारे अस्तित्व का
हिस्सा रहा
मेरा असहाय,डरा हुआ
प्राम्भिक अस्तित्व

सच
मैं आज भी
उतना ही डरा  हुआ हूँ
उतना ही निर्भर हूँ

फर्क इतना ही है
तुम्हारे दूध ने
इन अंगों को
तुम से ज्यादा
पुष्ट कर दिया है

Saturday, September 1, 2012

एक सपना

गदबदे बच्चे सा
वो अनमोल सपना
रात मेरी गोद बैठा
फिर पकड़ उंगली मेरी
डग भर चला था
एक ललछौंही ललक सा
फिर लपक कर
डाल कर मेरे गले
छोटी सी बाँहें
देर तक लिपटा रहा
आश्वस्त करता
फुसफुसाया फिर
मैं हिस्सा हूँ तुम्हारा
इक महक बन
रम गया हूँ
बीज हूँ मैं
ढूंढ भूमि उर्वरा अब
मैं फलूँगा

इक इबारत हूँ
मुझे लिख
आसमां पर
मैं बरस जाऊँगा
इक दिन
गा उठेगी
ये धरा भी

पाल मुझ को
थपकियाँ दे मत सुला
जागा रहा तो
जिंदगी के अर्थ
तुझ पर खोल दूंगा
मैं हूँ कुंजी
हूँ इशारा
साथ ले मुझ को
चला चल

बंद दरवाजों के पीछे
क्या
तुझे बतला सकूंगा