Wednesday, December 28, 2011

नया साल

हर साल होता है ऐसा ही
बदल जायेगा साल
बदल जायेंगे
हस्ताक्षरों के नीचे
लिखे जाने वाले अंक
बदल जायेंगे
कलेंडर डायरी

होटलों में
दारू के गिलासों में
डूब जायेगा
साल का एक अंक
उन्मत्त भीड़ की साक्षी में

लेकिन
बदल कर भी
न बदलेगी तारीख
नहीं बदलेगा
ठिठुरती देह पर पड़ा कम्बल
नहीं बदलेगा
अंक ज्योतिष द्वारा
निर्धारित भाग्यांक

साल बदल तो जायेगा
पर नया कब होगा ?

Sunday, December 25, 2011

कस्बे में ठण्ड

सूरज के विरुद्ध
षड्यंत्र रच
आततायी कोहरे को
निमंत्रण किस ने दिया
कोई नहीं जानता

ठण्ड खाया क़स्बा
पथरा गया है
हरारत महसूस होती है
ज्वर हो तो ही

अलाव तापते लोग
दिखाई नहीं देते
बस खांसते,खंखारते हैं
बंद कमरों में

सक्षम आदेश बिना ही
अनधिकृत कर्फ्यू
जारी हो गया
कस्बे में

जमाव बिंदु से नीचे पहुंचे
पारे ने
नलों का पानी ही नहीं
जमा दिया
कस्बे की
धमनियों का रक्त भी

रजाई में दुबका क़स्बा
उनींदा पड़ा रहेगा
दिन भर
मौसम को कोसता

इस आलसी
आत्म समर्पण को
ललकारती कोई आवाज़
एक दिन गूंजेगी कस्बे में
उस दिन भी शायद
अंगडाई ही ले क़स्बा

सूरज तुम कब आओगे
इस कोहरे की चादर को
फाड कर

मैं उस दिन
सूर्य नमस्कार के मन्त्र
नहीं जपूंगा
सीधा पी जाऊँगा तुम्हे
आँखों से ही

जागेगा ये उनींदा
क़स्बा भी

Monday, December 19, 2011

एक गज़ल

प्यास मेरी ओस चाटे से बुझी कब
सूर्य की पहली किरण मुझ को मिली कब

जो पहाड़ों से बड़ी निर्मल चली थी
एक नाले ने मिटा दी,वो नदी कब

कारकुन सरकार के इस को संभालें
ये गली मेरी,रही,मेरी गली कब

सूख जाती हैं खड़ी फसलें,गज़ब है
आसमां से अम्ल की बारिश हुई कब

इक घने कोहरे मे लिपटी बस्तियां हैं
लाख चाहा,धुप की खिडकी खुली कब

पार चौखट के थी इक रंगीन दुनिया
दो कदम विश्वास से लड़की चली कब

Tuesday, December 13, 2011

शंकरी ताई

खूबसूरत जवान विधवा
होने के खतरे
शंकरी ताई से ज्यादा
कौन जानता है

आँगन मे आई
चिड़िया भी
परों मे बाँध ले
जाती चार बात
टपका देती
किसी भी कान मे

कस्बे के जैसे
हज़ार आँख कान
होते हैं

जब तक ताऊ था
तब तक
ताऊ का 'होना' , 'न होना '
बराबर था
शंकरी ताई के लिए

पर आज जब ताऊ नहीं है
तब ताऊ का 'होना','न होना'
बराबर नहीं है
शंकरी ताई के लिए

सिरहाने लट्ठ रख कर सोई ताई
पसीने से नहाई
रोज जाग जाती है
बुरा सपना देख कर

उसांसती है
'बगैर मर्द कि औरत
जैसे हर गैर मर्द कि औरत'

जैसा भी था
जिंदगी मे
था तो एक मर्द
क्यों चला गया रे

Tuesday, December 6, 2011

ek gazal

जब भी मैंने रात का साया घिरते देखा
साथ सुबह को भी अंगडाई लेते देखा

इक सपना गर लाखों सपनों में ढल जाए
उस सपने को सच में सदा बदलते देखा

तितली के रंगों को छूने की चाहत थी
पर गिरगिट को मेरा सौदा करते देखा

कानूनों पर बहस सदन में न हो पायी
सारहीन बातों पर मगर झगड़ते देखा

मर्द और औरत के रिश्तों के पुराण से
शायर जी को कभी न आगे बढते देखा

हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा

सूरज से यारी की कीमत चुका चुका हूँ
अपना साया भरी दुपहरी जलते देखा

मेरे माथे की शिकनें गहरी हो आई
बेटी को जब आईने में सजते देखा

बातों का जो खाते मालामाल हुए हैं
हाथों का कारीगर ,पाँव रगड़ते देखा

आँगन में इक अमलतास था बड़ा सजीला
बाबा के जाते ही उस को मरते देखा

सहज तपस्या करता था मैं इक कोने में
देवराज ने सिंहासन क्यों हिलते देखा

Saturday, December 3, 2011

रेत माघ में

रजाई में दुबका सूरज
जब देर से उठेगा
जब बर्फ सी हुई रेत भी
अलसाई पड़ी रहेगी,अकारण
बस आलस्य ओढ़े हुए

सीली रेत सिमट आएगी मुट्ठी में
संवेदन शून्य
ऑपेरशन टेबल पर पड़े
मरीज सी

कोहरा कर रहा होगा
गुप्त मंत्रणा
विश्वस्त सिपहसालारों से
साम्राज्य विस्तार की

ऊँट या भेड़
के बालों को कतर कर
चारों ओर से चुभने वाले
कम्बलनुमा टुकड़े को ओढ़े
कुनमुना रहा होगा बचपन

खंखार रहा होगा बुढ़ापा
पड़े होंगे जवान शरीर चिपक कर
परस्पर ऊष्मा का
आदान प्रदान करते हुए

दुबकी होंगी भेड़ें
ऊन की बोरी बनी
कोई कुत्ता नहीं भोंकेगा
अकेला टिमटिमा रहा होगा
भोर का तारा

बस मस्ताया ऊँट
जीभ लटका कर
निकाल रहा होगा विचित्र आवाजें
कर रहा होगा प्रणय निवेदन

बूढी दादी राम के नाम के साथ
बहुओं के नाम का जाप भी
कर रही होगी मन ही मन

माघ की अलस भोर में
सुन्न पड़ा होगा रेगिस्तान
बर्फ में डुबोई
अंगुली सा

Friday, December 2, 2011

ek gazal

मायने जिंदगी के बदलते रहे
फैसले कुछ जरूरी थे ,टलते रहे

हाथ की ये लकीरें जो चुभने लगी
हाथ ही हम सिरे से बदलते रहे

सरसराते रहे ,कुलबुलाते रहे
गो कि उड़ ना सके बस उछलते रहे

हम गुबारों को हासिल समझते रहे
कारवां फासले से निकलते रहे

जो उठे सर सभी वो कलम हो गए
चींटियों के मगर पर निकलते रहे

आँख काँटों की फसलें उगाती रही
कुछ दुपट्टे लजाते ,सँभलते रहे