Tuesday, February 28, 2012

main arjun

मैं वही अर्जुन
वही फिर प्रश्न मेरे
क्या करूँ ?
और
क्या करूँ ना ?
फिर वही रणक्षेत्र
बजती दुन्दुभि है
शंख फूंके जा रहे
जयघोष गूंजे
सब डटे हैं
और डटे हैं प्रश्न मेरे
मैं हूँ कि
फिर पूछता हूँ
तुम हो जब कर्त्ता,विधाता
जब सभी कुछ
मात्र इच्छा है तुम्हारी
फिर भला क्यों
काल में हर
हो रहे कौरव
क्यों भला हो
धूत क्रीडा
छल से ले जाये
कोई भी
हाथ का इक कौर तक भी
और
हो लज्जा- हरण
हाथ बांधे
देखते हों
भार हो जिन पर
कि
तय करते
उचित-अनुचित
तौलते व्यवहार
करते ये सुनिश्चित
हो न् मर्यादा उल्लंघन

मानता हूँ
ध्वंसकारी युद्ध नियत हो
फिर
रह पाना तटस्थ दुष्कर
क्लीवता है
मात्र दर्शक ही बने रहना
तर्क दे कर भी
न् कर पाये थे तुम
सन्नद्ध मुझ को
फिर कहा था
इक शरण मेरी ही आ जा
त्याग चिंता
ये कोई सम्मोहिनी थी
और थी आश्वस्ति
कि
मैं त्याग चिंता
हो गया सन्नद्ध
फिर भी
प्रश्न मेरा
फिर खड़ा है
जब तुन्हें ही वहन् करना
योग क्षेम
फिर मुझे क्यों
लग रहा है
हाथ से इक कौर छिनना
और होना यूँ हनन
अधिकार का भी
धूत क्रीडा के छली
कैसे बने हैं
और यूँ लज्जा-हरण
क्यूँ हो रहा है
मात्र लीला नाम दे कर
पिंड छूटेगा नहीं
संत्रास से तो
है न् ये माया
कि मैं पीड़ा भुगतता

वास्तव में
कृष्ण तुम तो कृष्ण
हो विधाता
मैं तो अर्जुन मात्र
मेरे प्रश्न
मुझ को सालते हैं
मैं सखा हूँ
कर कोई उपचार ऐसा
युद्ध ना अब
शांति से ही
और सुलह से
हो सभी भ्रम का निवारण
तुम कि जब
मायापति हो
हो निवारण सब छलों का
क्यों पड़े तुम को भी आना
कर नहीं सकते
कुछ ऐसा
हो स्वयं ही
सत्य कि जय
ना छली हों
ना बली हों
युद्ध ही उपचार क्यों
श्रंखला ये
घोर कर्मों की
ही निर्णय क्यों करेगी
क्यों कहा फिर
ज्ञान है और भक्ति भी है
कर्म करना ही
नियति है
कर्म भी फिर
प्रेम ममता
और दया ही
क्यों नहीं हो ?
द्वंद्व ही क्यों
क्या समन्वय का
नहीं कोई ठिकाना
शस्त्र ही उपचार क्यों
होता है अंतिम
क्यों नियत है
हर सृजन
संहार पर ही

प्रश्न शाश्वत और
तुम भी
लौटता हूँ मैं ही
ले कर
काल में हर
नियति मेरी
मैं मनुज हूँ
और हूँ
वश में तुम्हारे
एक माया
एक छलना
कृष्ण सुन लो
एक दिन पक्का सुनिश्चित
देख लूँगा पार मैं
उसी दिन
तुम भी कह दोगे
कहाँ तुम दूर मुझ से

एक दिन
सामर्थ्य मेरी
कह उठेगी
एक अर्जुन
आज से अब
कृष्ण होगा

Saturday, February 25, 2012

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे'में संकलित

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे' से

बिना बात की बातें कब तक
सोई जागी रातें कब तक

इक पूरा जीवन जीना है
हर कोने से घातें कब तक

जश्न अगर हो पूरा तो हो
बिन बाजा बारातें कब तक

इक लट्टू है,एक झुनझुना
माने ये सौगातें कब तक

सहरा की किस्मत भी बदले
थकी थकी बरसातें कब तक

कोई तो सच का हामी हो
पागल हुई जमातें कब तक

आदम होने का हक माँगा
नापेंगे औकातें कब तक

अगर वजीरों से हो,तो,हो
इन प्यादों से मातें कब तक

मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे' से

अब जिंदगी के मायने क्या,सोचता तो हूँ
जब झूठ है रवायत,सच बोलता तो हूँ

बेरंग आसमां में आंधी का जोर है
माहौल की घुटन को कुछ तोड़ता तो हूँ

बस्ती तो जैसी पूरी साँपों ने सूंघ ली
चाहे डरा हुआ हूँ,दर खोलता तो हूँ

कितने निजाम ए काफिर अब तक तो हो लिए
ईमान की गली में मैं डोलता तो हूँ

चुप्पी चलन पुराना,मुंह फेरना अदा
है बेहया हिमाक़त, मैं टोकता तो हूँ

आलम खुमारियों का,मस्ती का दौर भी
जब डंक सा चुभा हूँ,झकझोरता तो हूँ

Wednesday, February 15, 2012

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे'में संकलित

जब वहम उस का यकीं बन जायेगा
वो कमां सा बेवज़ह तन जायेगा

चार पांसे वक्त के सीधे पड़े
आदमी से वो खुदा बन जायेगा

आदमी फौलाद सा दिखने लगे
गर मुकाबिल हौसला ठन जायेगा

बाप शामिल हो गया है दौड में
देखिये बच्चे का बचपन जायेगा

एक कीचड़,एक काजल कोठरी
आजमा लो,सर तलक सन जायेगा

हांडियों में आजमा कर देख लो
सब शरीफों का बड़प्पन जायेगा

Friday, February 3, 2012

बस यूँ ही

मन कहाँ फगुनाता है
अब फागुन में
पनिया जाता है कभी
बिना सावन के भी

मौसम से टूटा रिश्ता
पिछले कई मौसमों के
आंसुओं को ढोता
याद करता है
निम्बोली की
मीठी कड़वाहट
फर्क याद करता है
नीम और आम के बौर में
खुलता है
पाले से जले
आक का सकुचाते हुए
धीरे धीरे विकसना

याद जीने लगी है
मरा तो होगा कुछ
मौसम ?
मन ?
रिश्ता ?