Saturday, February 25, 2012

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे'में संकलित

एक गज़ल मेरे संग्रह 'वक्त से कुछ आगे' से

बिना बात की बातें कब तक
सोई जागी रातें कब तक

इक पूरा जीवन जीना है
हर कोने से घातें कब तक

जश्न अगर हो पूरा तो हो
बिन बाजा बारातें कब तक

इक लट्टू है,एक झुनझुना
माने ये सौगातें कब तक

सहरा की किस्मत भी बदले
थकी थकी बरसातें कब तक

कोई तो सच का हामी हो
पागल हुई जमातें कब तक

आदम होने का हक माँगा
नापेंगे औकातें कब तक

अगर वजीरों से हो,तो,हो
इन प्यादों से मातें कब तक

1 comment:

अरुण अवध said...

.
कोई तो सच का हामी हो
पागल हुई जमातें कब तक

बहुत खूबसूरत शेर कहे ,अश्विनी जी ! उम्दा ग़ज़ल !