रिश्ता एक खेजड़ी है
जो चाहे छांग दी जाये
कितनी बार
पनप आती है हर बार
दुगुने जोश से
पनप जाता है सब कुछ जिस के साये में.
रिश्ता नहीं होता रोहिडा
जो अंगारे से गंधहीन फूल लिये
खिला रहता है / बियाबान में
कुछ भी नहीं पनपता जिस के साये में
रिश्ता आक भी नहीं है
जो उड़ा देता है
बीजों को रुई सा
पूरे माहौल में
चिपचिपे दूध सा / चिपक जाता है
अपनी ज़हरीली तासीर लिये
रेत जानती है रिश्तों को
चिपक जाती है तन पर प्यार से
हट जाती है उतनी ही आसानी से
पूरा मौका देती है
पनपने का / खुलने का
रेत हक नहीं जताती
मालिकाना भी नहीं
रेत सिर्फ ढलना जानती है
आप की सहूलियत के अनुसार
रिस जाती है बंद मुट्ठी से भी
चुपचाप बिना किसी शिकायत के
अगर रिसने दिया जाये तो
रेत नहीं जानती
रिश्ते को कोई /नाम देना भी
बस एक नामालूम सी
उपस्थिति बनी रहती है
ज़ेहन से शरीर तक
रिश्ता न ज़हरीला चिपचिपा दूध है
न अंगार रंग का
गंध रहित फूल
वो है खेजडी सा
जो पनपती है / पनपाती है
देती है लूँग,सांगरी
जल लेती है चूल्हे में भी
वो है रेत सा
जो आप की जिंदगी में
है भी और नहीं भी
रिश्ता जीता है
रेत में / खेजड़ी में
इसीलिये जीता है
रेगिस्तान के आदमी में
Wednesday, June 29, 2011
Monday, June 27, 2011
fog ki jad aur aaadmi ka man
फोग की जड़ें
धंस जाती हैं टीलों में
कैसे भी /आंकी बांकी
बिना किसी तय स्वरुप के
बढ़ जाती है / किधर भी
अंगड़ाई लेती
अल्हड़ युवती से
वैसे ही जैसे
चल देता है
आदमी का मन
कहीं भी / किधर भी
कभी होता है
चांदनी रात में बांसुरी की तान
पिघल कर / फ़ैल जाता है
दर्द का मीठा अहसास बन कर
रेत के टीलों पर / मीलों तक
कभी होता है
मेमने के कोमल रोओं सा
नर्म, नाज़ुक, मखमली
कोमल अहसास सा
हल्का हल्का
कीमती सपने की तरह
कभी चालाक लोमड़ी सा
दुबका होता घात लगा कर
तेज कांटे सा
कहीं भी चुभने को तैयार
कभी होता है
लपलपाती जीभ से टपकती
जुगुप्सित लार सा
महज एक
आदिम नग्न लालसा
नित नये खेल खेलता
आदमी का मन
कहीं भी धंस जाता है
फ़ैल जाता है
बाँध लेता है
भरेपूरे आदमी को
वैसे ही जैसे
फोग की जड़
बाँध लेती है
एक भरपूर टीले को
धंस जाती हैं टीलों में
कैसे भी /आंकी बांकी
बिना किसी तय स्वरुप के
बढ़ जाती है / किधर भी
अंगड़ाई लेती
अल्हड़ युवती से
वैसे ही जैसे
चल देता है
आदमी का मन
कहीं भी / किधर भी
कभी होता है
चांदनी रात में बांसुरी की तान
पिघल कर / फ़ैल जाता है
दर्द का मीठा अहसास बन कर
रेत के टीलों पर / मीलों तक
कभी होता है
मेमने के कोमल रोओं सा
नर्म, नाज़ुक, मखमली
कोमल अहसास सा
हल्का हल्का
कीमती सपने की तरह
कभी चालाक लोमड़ी सा
दुबका होता घात लगा कर
तेज कांटे सा
कहीं भी चुभने को तैयार
कभी होता है
लपलपाती जीभ से टपकती
जुगुप्सित लार सा
महज एक
आदिम नग्न लालसा
नित नये खेल खेलता
आदमी का मन
कहीं भी धंस जाता है
फ़ैल जाता है
बाँध लेता है
भरेपूरे आदमी को
वैसे ही जैसे
फोग की जड़
बाँध लेती है
एक भरपूर टीले को
Saturday, June 25, 2011
sawan ke dohe ,tatha kuchh any bhi
बादल बरसा टूट कर,नेह भरा अनुबंध
हुलस हुलस नदिया बही,टूट गए तटबंध
बूँद बूँद बरसा कभी,कभी मूसलाधार
आवारा सावन करे,मनमौजी व्यवहार
फिर से इक दिन आयेगा,फिर से होगी रात
फिर फिर सावन आयेगा,फिर होगी बरसात
ये सावन है हाथ में,पूरे कर सब चाव
क्या जाने कितना चले,ये कागज़ की नाव
बिजली कडकी जोर से,घिरी घटा घनघोर
दबे पाँव बाहर हुआ,मेरे मन का चोर
ये सावन है सोलवां,कर सोलह श्रृंगार
ये नदिया बरसात की,बहनी है दिन चार
उठी अनूठी बादली,घटाटोप आकाश
फिर भी बाकी रह गयी,इस धरती की प्यास
तन भीगे तो बात क्या,मन भीगे तो बात
बूंदों की है जात क्या,आंसू की है जात
रिम झिम का संगीत है,बूँद बूँद अनमोल
पानी का ही तोल है,पानी का ही मोल
ये सावन के चोंचले,अब बदली अब धूप
जीवन फिर आकाश है,कितने बदले रूप
आषाढी आकाश से,टपकी पहली बूँद
कोई जीवन पी गया,छत पर आँखें मूँद
सावन की अठखेलियाँ,अब गुमसुम,अब शोर
बिन सूरज फिर आ गयी, भीगी भीगी भोर
भीगी भीगी भोर थी,अभी चटकती धूप
ये जीवन का तौर है,पल पल बदले रूप
कहीं टपकती झोंपड़ी ,कहीं चल रहे दौर
ये सावन कुछ और है,वो सावन कुछ और
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
सब कुछ मिलता मोल से,सांस मिले बिन मोल
मोल मिला किस काम का,बिना मोल अनमोल
मैं कहता संसार है,तू माया का जाल
आ देखें निकले अगर,कहीं बाल की खाल
आँगन आँगन लोग हैं,देहरी देहरी चाह
मंदिर मंदिर देवता,चौखट चौखट आह
सगा सहोदर दूर है,और पड़ोसी पास
रिश्तों से आने लगी कैसे खट्टी बास
कूड़े फांदे मौज में समय गैंद का खेल
ये घोडा बिगडैल है लेता नहीं नकेल
आँगन बेटी डोलती जैसे सपन अडोल
बाप चुका पाया नहीं उस सपने का मोल
सूरज को लुढ़का गया फिर कोई इस ओर
सुबह सवेरे आ गयी अलसाई सी भोर
कहीं सीढियाँ बन रहे, कहीं बिछौने लोग
औने पौने बिक रहे,बौने बौने लोग
हुलस हुलस नदिया बही,टूट गए तटबंध
बूँद बूँद बरसा कभी,कभी मूसलाधार
आवारा सावन करे,मनमौजी व्यवहार
फिर से इक दिन आयेगा,फिर से होगी रात
फिर फिर सावन आयेगा,फिर होगी बरसात
ये सावन है हाथ में,पूरे कर सब चाव
क्या जाने कितना चले,ये कागज़ की नाव
बिजली कडकी जोर से,घिरी घटा घनघोर
दबे पाँव बाहर हुआ,मेरे मन का चोर
ये सावन है सोलवां,कर सोलह श्रृंगार
ये नदिया बरसात की,बहनी है दिन चार
उठी अनूठी बादली,घटाटोप आकाश
फिर भी बाकी रह गयी,इस धरती की प्यास
तन भीगे तो बात क्या,मन भीगे तो बात
बूंदों की है जात क्या,आंसू की है जात
रिम झिम का संगीत है,बूँद बूँद अनमोल
पानी का ही तोल है,पानी का ही मोल
ये सावन के चोंचले,अब बदली अब धूप
जीवन फिर आकाश है,कितने बदले रूप
आषाढी आकाश से,टपकी पहली बूँद
कोई जीवन पी गया,छत पर आँखें मूँद
सावन की अठखेलियाँ,अब गुमसुम,अब शोर
बिन सूरज फिर आ गयी, भीगी भीगी भोर
भीगी भीगी भोर थी,अभी चटकती धूप
ये जीवन का तौर है,पल पल बदले रूप
कहीं टपकती झोंपड़ी ,कहीं चल रहे दौर
ये सावन कुछ और है,वो सावन कुछ और
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सब कुछ मिलता मोल से,सांस मिले बिन मोल
मोल मिला किस काम का,बिना मोल अनमोल
मैं कहता संसार है,तू माया का जाल
आ देखें निकले अगर,कहीं बाल की खाल
आँगन आँगन लोग हैं,देहरी देहरी चाह
मंदिर मंदिर देवता,चौखट चौखट आह
सगा सहोदर दूर है,और पड़ोसी पास
रिश्तों से आने लगी कैसे खट्टी बास
कूड़े फांदे मौज में समय गैंद का खेल
ये घोडा बिगडैल है लेता नहीं नकेल
आँगन बेटी डोलती जैसे सपन अडोल
बाप चुका पाया नहीं उस सपने का मोल
सूरज को लुढ़का गया फिर कोई इस ओर
सुबह सवेरे आ गयी अलसाई सी भोर
कहीं सीढियाँ बन रहे, कहीं बिछौने लोग
औने पौने बिक रहे,बौने बौने लोग
Thursday, June 23, 2011
barsat ret aur zindagi
टूट कर बरसी बरसात के बाद
इन टीलों पर
बहुत आसान होता है
रेत को किसी भी रूप में ढालना
मेरे पाँव पर
रेत को थपक थपक कर
तुम ने जो इग्लुनुमा
रचना बनाई थी
कहा था उसे घर
मैं भी बहुत तल्लीनता से
इकट्ठे कर रहा था
उसे सजाने के सामान
कोई तिनका,कंकर,काँटा
किसी झाड़ी की डाली
कोई यूँ ही सा जंगली फूल
चिकनी मिटटी के ढेले
तुम ने सब कोई नाम
कोई अर्थ दे दिया था
अगले दिन जब
हम वहां पहुंचे
तो कुछ नहीं था
एक आंधी उड़ा ले गयी थी
सब कुछ
तब हम कितनी शिद्दत से
महसूस करते थे
छोटे छोटे सुख दुःख
कहाँ जानता था तब मैं
ज़िन्दगी ऐसे ही
घरोंदे बनाने
और सुख दुःख सहेजने का नाम है
इन टीलों पर
बहुत आसान होता है
रेत को किसी भी रूप में ढालना
मेरे पाँव पर
रेत को थपक थपक कर
तुम ने जो इग्लुनुमा
रचना बनाई थी
कहा था उसे घर
मैं भी बहुत तल्लीनता से
इकट्ठे कर रहा था
उसे सजाने के सामान
कोई तिनका,कंकर,काँटा
किसी झाड़ी की डाली
कोई यूँ ही सा जंगली फूल
चिकनी मिटटी के ढेले
तुम ने सब कोई नाम
कोई अर्थ दे दिया था
अगले दिन जब
हम वहां पहुंचे
तो कुछ नहीं था
एक आंधी उड़ा ले गयी थी
सब कुछ
तब हम कितनी शिद्दत से
महसूस करते थे
छोटे छोटे सुख दुःख
कहाँ जानता था तब मैं
ज़िन्दगी ऐसे ही
घरोंदे बनाने
और सुख दुःख सहेजने का नाम है
Wednesday, June 22, 2011
इस साल भी रब्बुड़ी
नहीं जायेगी मायके
इस साल भी सूना र्रहेगा नीम
नहीं डलेगा कोई झूला
इस साल भी दिसावर ही रहेगा
मरवण का साहबा
इस साल भी रब्बुड़ी
इंतजार करेगी काग का
और मरवण मनुहार करेगी
कुरजां की
रेगिस्तान
एक अनंत प्रतीक्षा है
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
चौकड़ी भरेगा हरिण
बालू रेत पर सरसरायेंगे
बांडी, पैणे
सांडा और गोह भी
दिख जाये शायद
गोडावण भी
दौड़ जायेगी लोमड़ी सामने से
खरगोश,तीतर
दुबके होंगे जान बचा कर
सेहली डरा रही होगी
अपने नुकीले काँटों से
शायद दिख जाये
बाज का झपट्टा भी
इतना वीरान भी
नहीं होता रेगिस्तान
नहीं जायेगी मायके
इस साल भी सूना र्रहेगा नीम
नहीं डलेगा कोई झूला
इस साल भी दिसावर ही रहेगा
मरवण का साहबा
इस साल भी रब्बुड़ी
इंतजार करेगी काग का
और मरवण मनुहार करेगी
कुरजां की
रेगिस्तान
एक अनंत प्रतीक्षा है
;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;;
चौकड़ी भरेगा हरिण
बालू रेत पर सरसरायेंगे
बांडी, पैणे
सांडा और गोह भी
दिख जाये शायद
गोडावण भी
दौड़ जायेगी लोमड़ी सामने से
खरगोश,तीतर
दुबके होंगे जान बचा कर
सेहली डरा रही होगी
अपने नुकीले काँटों से
शायद दिख जाये
बाज का झपट्टा भी
इतना वीरान भी
नहीं होता रेगिस्तान
Monday, June 20, 2011
virah ke rang
विरह के रंग
एक-
गाँव के मर्द
खाने-कमाने निकल गए हैं
कोलकाता,मुंबई,चेन्नई,गौहाटी
अरब,दुबई,क़तर,ओमान
रेगिस्तानी सिन्धी सारंगी
बजा रही है
विरह का स्थायी भाव
नये बने पक्के मकान में गूंजती
गाँव की औरतों की
आधी रात की सिसकियों में
डूब जाती है
सिक्कों की खनक
छा जाती है
सारंगी की गूँज
दो-
हरजाई,आवारा मानसून
किन गलियों में डोलता है
ताक़ती रहती है रेत
मनचले के रंग ढंग
दुहाग दी गयी रानी सी रेत
वियोग की आग में तपती है
खुश हो लेती है चार बूंदे पा कर
सहेज लेती है
दो बूँद प्यार
कंगाल के धन सा
आकंठ आसक्ता रेत
कभी कभी फुसफुसा देती है कान में
सिर्फ एक दिन तो दो कभी
मुझे भी
एक-
गाँव के मर्द
खाने-कमाने निकल गए हैं
कोलकाता,मुंबई,चेन्नई,गौहाटी
अरब,दुबई,क़तर,ओमान
रेगिस्तानी सिन्धी सारंगी
बजा रही है
विरह का स्थायी भाव
नये बने पक्के मकान में गूंजती
गाँव की औरतों की
आधी रात की सिसकियों में
डूब जाती है
सिक्कों की खनक
छा जाती है
सारंगी की गूँज
दो-
हरजाई,आवारा मानसून
किन गलियों में डोलता है
ताक़ती रहती है रेत
मनचले के रंग ढंग
दुहाग दी गयी रानी सी रेत
वियोग की आग में तपती है
खुश हो लेती है चार बूंदे पा कर
सहेज लेती है
दो बूँद प्यार
कंगाल के धन सा
आकंठ आसक्ता रेत
कभी कभी फुसफुसा देती है कान में
सिर्फ एक दिन तो दो कभी
मुझे भी
Saturday, June 18, 2011
thahar jara tu
मुझ से डर औ मुझे डरा तू
छिछला लेकिन दिख गहरा तू
साधन संसाधन सब तेरे
क्यों जीता है मरा मरा तू
बहुत बनैला और अघाया
लेकिन फिर भी बेसबरा तू
अभी हंसाये,अभी रुलाये
नाजनीन का सा नखरा तू
मेरे जीवन से कब निकला
चाहे कितना भी अखरा तू
हार और गुलदस्ते तेरे
मेरी बगिया का खतरा तू
इक दिन ये पक्का होना है
मैं बोलूँगा,ठहर जरा तू
छिछला लेकिन दिख गहरा तू
साधन संसाधन सब तेरे
क्यों जीता है मरा मरा तू
बहुत बनैला और अघाया
लेकिन फिर भी बेसबरा तू
अभी हंसाये,अभी रुलाये
नाजनीन का सा नखरा तू
मेरे जीवन से कब निकला
चाहे कितना भी अखरा तू
हार और गुलदस्ते तेरे
मेरी बगिया का खतरा तू
इक दिन ये पक्का होना है
मैं बोलूँगा,ठहर जरा तू
Thursday, June 16, 2011
khuddari hai yaaro
बहुत ज़मीनी ये खुद्दारी है यारो
बस मिजाज़ की कारगुजारी है यारो
मखमल से अहसास अभी तक जिंदा है
माँ ने इतनी नज़र उतारी है यारो
इक सपने को भी ताबीर नहीं मिलती
पूरे जग की ज़िम्मेदारी है यारो
नाइंसाफी चलन पुराना दुनिया का
रीत रीत अब अपनी बारी है यारो
कई ढोंगियों की ज़मात सिर जोड़े है
शुरू मुल्क में रायशुमारी है यारो
सच्ची आवाज़ों का हमल गिरा देंगे
बहुत करीने की गद्दारी है यारो
धुप चांदनी टुकड़ा टुकड़ा ही देंगे
रोशनदानों को बीमारी है यारो
बस मिजाज़ की कारगुजारी है यारो
मखमल से अहसास अभी तक जिंदा है
माँ ने इतनी नज़र उतारी है यारो
इक सपने को भी ताबीर नहीं मिलती
पूरे जग की ज़िम्मेदारी है यारो
नाइंसाफी चलन पुराना दुनिया का
रीत रीत अब अपनी बारी है यारो
कई ढोंगियों की ज़मात सिर जोड़े है
शुरू मुल्क में रायशुमारी है यारो
सच्ची आवाज़ों का हमल गिरा देंगे
बहुत करीने की गद्दारी है यारो
धुप चांदनी टुकड़ा टुकड़ा ही देंगे
रोशनदानों को बीमारी है यारो
Saturday, June 11, 2011
aate jaate log
पूरा जीवन दाँव लगाते लोग
कब झोली से ज्यादा पाते लोग
राहों को मिल्कियत बताते हैं
चौराहे से आते जाते लोग
एक लहर सब ले जाती लेकिन
एक घरोंदा रोज बनाते लोग
चाहों को कितना चाहे चाहो
चाह नहीं मिटती मिट जाते लोग
वक़्त बिगड़ता है वक्तन वक्तन
वक़्त बिगड़ता वक़्त बनाते लोग
नाते-रिश्ते एक गहरा सागर
अपनी डोंगी पार लगाते लोग
एक संगीं सा राज बना जीना
राज बनाते राज छिपाते लोग
रिश्ते धीमी मौत मरा करते
चुपके चुपके शोक मानते लोग
दुनिया इक सतरंगी चादर है
कहीं ओढ़ते कहीं बिछाते लोग
कब झोली से ज्यादा पाते लोग
राहों को मिल्कियत बताते हैं
चौराहे से आते जाते लोग
एक लहर सब ले जाती लेकिन
एक घरोंदा रोज बनाते लोग
चाहों को कितना चाहे चाहो
चाह नहीं मिटती मिट जाते लोग
वक़्त बिगड़ता है वक्तन वक्तन
वक़्त बिगड़ता वक़्त बनाते लोग
नाते-रिश्ते एक गहरा सागर
अपनी डोंगी पार लगाते लोग
एक संगीं सा राज बना जीना
राज बनाते राज छिपाते लोग
रिश्ते धीमी मौत मरा करते
चुपके चुपके शोक मानते लोग
दुनिया इक सतरंगी चादर है
कहीं ओढ़ते कहीं बिछाते लोग
Wednesday, June 8, 2011
sun baba
वैसे का वैसा है होरी,सुन बाबा
गिद्ध करे है मुर्दाखोरी,सुन बाबा
बस्ती को श्मशान बनाने का गुर ले
ताप रहे हैं कई अघोरी, सुन बाबा
मुल्क आवामी बातें एक बहाना है
सुर्खी किस ने कहाँ बटोरी, सुन बाबा
नूरा-कुश्ती,दुरभिसंधियाँ,समझौते
मगर सामने जोरा जोरी,सुन बाबा
मर्दानापन इक साज़िश की भेंट चढ़ा
कुछ जनखों ने खींस निपोरी,सुन बाबा
दुनिया में बस बूढ़े ही पैदा होते
सिसक रही है माँ की लोरी,सुन बाबा
आदम-आदमखोर,आदमीयत सहमी
सत्ता चाटे खून चटोरी,सुन बाबा
गिद्ध करे है मुर्दाखोरी,सुन बाबा
बस्ती को श्मशान बनाने का गुर ले
ताप रहे हैं कई अघोरी, सुन बाबा
मुल्क आवामी बातें एक बहाना है
सुर्खी किस ने कहाँ बटोरी, सुन बाबा
नूरा-कुश्ती,दुरभिसंधियाँ,समझौते
मगर सामने जोरा जोरी,सुन बाबा
मर्दानापन इक साज़िश की भेंट चढ़ा
कुछ जनखों ने खींस निपोरी,सुन बाबा
दुनिया में बस बूढ़े ही पैदा होते
सिसक रही है माँ की लोरी,सुन बाबा
आदम-आदमखोर,आदमीयत सहमी
सत्ता चाटे खून चटोरी,सुन बाबा
taapmapi aur ret
तापमापी के पारे पर
कसा जाता है रेत का धैर्य
ऊपर नीचे होते पारे को
रेत ताक़ती है
मॉनिटर पर चलते
ह्रदय की धड़कन के ग्राफ की तरह
ग्राफ बता सकता है
ह्रदय की धड़कन की गति
लेकिन नहीं नाप सकता
ह्रदय के भाव,कल्पनाएँ,उड़ान
वैसे ही पारा जानता है
रेत का ताप
लेकिन नहीं जान सकता
रेत की गहराई
रेत का दर्द
कैसे बन जाते हैं
समुद्र की लहरों से
एक के बाद एक
रेत के सम रूपाकार
छुपे छुपे हैं रेत के राज
किसी स्त्री मन की तरह
नहीं माप पायेगा तापमापी कभी भी कि रेत
क्यों गाती है चांदनी रात में
क्यों हरख जाती है पहली बरसात में
क्यों अलसाती है पूस कि रात में
क्यों चुपचाप होती है जेठ कि दुपहरी में
क्यों बन जाती है
काली-कराली आंधी
चक्रवात,प्रभंजन
असहनीय हो जाता है जब ताप
कसा जाता है रेत का धैर्य
ऊपर नीचे होते पारे को
रेत ताक़ती है
मॉनिटर पर चलते
ह्रदय की धड़कन के ग्राफ की तरह
ग्राफ बता सकता है
ह्रदय की धड़कन की गति
लेकिन नहीं नाप सकता
ह्रदय के भाव,कल्पनाएँ,उड़ान
वैसे ही पारा जानता है
रेत का ताप
लेकिन नहीं जान सकता
रेत की गहराई
रेत का दर्द
कैसे बन जाते हैं
समुद्र की लहरों से
एक के बाद एक
रेत के सम रूपाकार
छुपे छुपे हैं रेत के राज
किसी स्त्री मन की तरह
नहीं माप पायेगा तापमापी कभी भी कि रेत
क्यों गाती है चांदनी रात में
क्यों हरख जाती है पहली बरसात में
क्यों अलसाती है पूस कि रात में
क्यों चुपचाप होती है जेठ कि दुपहरी में
क्यों बन जाती है
काली-कराली आंधी
चक्रवात,प्रभंजन
असहनीय हो जाता है जब ताप
Monday, June 6, 2011
tapt ret ka prem
महायोगी सूरज रोज तपता है
उदय से अस्त तक
योगी सूरज के इस प्रताप को
समझती रेत
समझदार शिष्या की तरह
पंचाग्नि तापती योगिनी सी
तपती है दिन भर
तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप
बिना किसी शिकायत के
किसी भी चने को भून देने में सक्षम
भाड़ बनी रेत
सिर्फ धमका देती है
अपने बच्चों को
दुबक रहो कहीं भी
जहाँ भी मिल सके थोड़ी सी छांह
प्रेमी चाँद की दुलार भरी
रात की थपकियों से
तीसरे प्रहर तक
कठिनाई से सहज हुई रेत
प्रेम में सराबोर
मृदुल होने का प्रयास कर रही होती है
शीतल हुई रेत भूल जाये शायद
नित्य प्रति का पंचाग्नि तप
तभी सूरज वापिस आने का संकेत देने लगता है
लाल हुई दिशाएं दुन्दुभी बजाने लगती है
सूचना देती हैं योगिराज के आगमन की
रेत चाँद का हाथ झटक
पुनः तैयार हो रही है
गुरु योगिराज के साथ तपने के लिए
योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है
लेकिन रेत पगला जाती है
हवा के झोंको से
चंचला हुई उड़ती फिरती है
हवा क्या है
जो भ्रष्ट करती है
योग और प्रेम दोनों को
उदय से अस्त तक
योगी सूरज के इस प्रताप को
समझती रेत
समझदार शिष्या की तरह
पंचाग्नि तापती योगिनी सी
तपती है दिन भर
तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप
बिना किसी शिकायत के
किसी भी चने को भून देने में सक्षम
भाड़ बनी रेत
सिर्फ धमका देती है
अपने बच्चों को
दुबक रहो कहीं भी
जहाँ भी मिल सके थोड़ी सी छांह
प्रेमी चाँद की दुलार भरी
रात की थपकियों से
तीसरे प्रहर तक
कठिनाई से सहज हुई रेत
प्रेम में सराबोर
मृदुल होने का प्रयास कर रही होती है
शीतल हुई रेत भूल जाये शायद
नित्य प्रति का पंचाग्नि तप
तभी सूरज वापिस आने का संकेत देने लगता है
लाल हुई दिशाएं दुन्दुभी बजाने लगती है
सूचना देती हैं योगिराज के आगमन की
रेत चाँद का हाथ झटक
पुनः तैयार हो रही है
गुरु योगिराज के साथ तपने के लिए
योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है
लेकिन रेत पगला जाती है
हवा के झोंको से
चंचला हुई उड़ती फिरती है
हवा क्या है
जो भ्रष्ट करती है
योग और प्रेम दोनों को
baaki hai
मुंह बाकी, ज़ुबान बाकी है
सफ़र बाकी,थकान बाकी है
जिस्म ही जिस्म हो गया चाहे
रूह के फिर निशान बाकी है
वायदामाफ़ है वो, खतरा है
अभी उस का बयान बाकी है
जो है मौजूद, जी रहे होंगे
घुटी सी दास्तान बाकी है
अभी बर्बाद कब हुई बस्ती
अधजले कुछ मकान बाकी है
आसमाँ साजिशें करे कितनी
हौसलों की उड़ान बाकी है
सफ़र बाकी,थकान बाकी है
जिस्म ही जिस्म हो गया चाहे
रूह के फिर निशान बाकी है
वायदामाफ़ है वो, खतरा है
अभी उस का बयान बाकी है
जो है मौजूद, जी रहे होंगे
घुटी सी दास्तान बाकी है
अभी बर्बाद कब हुई बस्ती
अधजले कुछ मकान बाकी है
आसमाँ साजिशें करे कितनी
हौसलों की उड़ान बाकी है
Sunday, June 5, 2011
neeela peela
लाल,हरा,नारंगी,नीला,पीला है
जो भी रंग मिला है,वही पनीला है
वो बेचारा, हम बेचारों जैसा है
बस बस्ती का पानी जरा नशीला है
खुल कर सांस नहीं ले पाओगे बाबा
मौसम का अंदाज़ बहुत जहरीला है
रीढ़ नहीं है, घुटनों के बल चलता है
बहुत लिजलिजा,ठंडा है,बर्फीला है
दुनिया पूरी जैसे रैम्प बनी कोई
बेलिबास का ही लिबास चमकीला है
भरी दुपहरी ,जैसा, वैसा शाम ढले
मेरा साया, बदला कब,शर्मीला है
ये आदम के बेटों की ही चोटें है
आसमान को शौक़ नहीं जो नीला है
जो भी रंग मिला है,वही पनीला है
वो बेचारा, हम बेचारों जैसा है
बस बस्ती का पानी जरा नशीला है
खुल कर सांस नहीं ले पाओगे बाबा
मौसम का अंदाज़ बहुत जहरीला है
रीढ़ नहीं है, घुटनों के बल चलता है
बहुत लिजलिजा,ठंडा है,बर्फीला है
दुनिया पूरी जैसे रैम्प बनी कोई
बेलिबास का ही लिबास चमकीला है
भरी दुपहरी ,जैसा, वैसा शाम ढले
मेरा साया, बदला कब,शर्मीला है
ये आदम के बेटों की ही चोटें है
आसमान को शौक़ नहीं जो नीला है
Wednesday, June 1, 2011
कहीं नहीं
जब मंजिल का पता ठिकाना कहीं नहीं
रोज सफ़र है लेकिन जाना कहीं नहीं
जिस्म सजाना चलन चलाया आदम ने
थोड़ी सी ये रूह सजाना कहीं नहीं
धर्म, नस्ल और जात-पांत में भेद कहाँ
ये बिरादरी में कह पाना कहीं नहीं
मर जाने के लाखों कारण रोज मिले
पर जीने का एक बहाना कहीं नहीं
जिन राहों पर पहले चला नहीं कोई
उन राहों पर आना जाना कहीं नहीं
बरसों पहले दीन चलाया अकबर ने
फिर वैसा ही चलन चलाना कहीं नहीं
पीढ़ी को बर्बाद किये जाते नादाँ
एक सलीका दे वो दाना कहीं नहीं
रोज सफ़र है लेकिन जाना कहीं नहीं
जिस्म सजाना चलन चलाया आदम ने
थोड़ी सी ये रूह सजाना कहीं नहीं
धर्म, नस्ल और जात-पांत में भेद कहाँ
ये बिरादरी में कह पाना कहीं नहीं
मर जाने के लाखों कारण रोज मिले
पर जीने का एक बहाना कहीं नहीं
जिन राहों पर पहले चला नहीं कोई
उन राहों पर आना जाना कहीं नहीं
बरसों पहले दीन चलाया अकबर ने
फिर वैसा ही चलन चलाना कहीं नहीं
पीढ़ी को बर्बाद किये जाते नादाँ
एक सलीका दे वो दाना कहीं नहीं
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