Monday, June 27, 2011

fog ki jad aur aaadmi ka man

फोग की जड़ें
धंस जाती हैं टीलों में
कैसे भी /आंकी बांकी
बिना किसी तय स्वरुप के
बढ़ जाती है / किधर भी
अंगड़ाई लेती
अल्हड़ युवती से

वैसे ही जैसे
चल देता है
आदमी का मन
कहीं भी / किधर भी

कभी होता है
चांदनी रात में बांसुरी की तान
पिघल कर / फ़ैल जाता है
दर्द का मीठा अहसास बन कर
रेत के टीलों पर / मीलों तक

कभी होता है
मेमने के कोमल रोओं सा
नर्म, नाज़ुक, मखमली
कोमल अहसास सा
हल्का हल्का
कीमती सपने की तरह

कभी चालाक लोमड़ी सा
दुबका होता घात लगा कर
तेज कांटे सा
कहीं भी चुभने को तैयार

कभी होता है
लपलपाती जीभ से टपकती
जुगुप्सित लार सा
महज एक
आदिम नग्न लालसा

नित नये खेल खेलता
आदमी का मन
कहीं भी धंस जाता है
फ़ैल जाता है
बाँध लेता है
भरेपूरे आदमी को

वैसे ही जैसे
फोग की जड़
बाँध लेती है
एक भरपूर टीले को

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