Monday, June 20, 2011

virah ke rang

विरह के रंग
एक-
गाँव के मर्द
खाने-कमाने निकल गए हैं
कोलकाता,मुंबई,चेन्नई,गौहाटी
अरब,दुबई,क़तर,ओमान

रेगिस्तानी सिन्धी सारंगी
बजा रही है
विरह का स्थायी भाव

नये बने पक्के मकान में गूंजती
गाँव की औरतों की
आधी रात की सिसकियों में
डूब जाती है
सिक्कों की खनक

छा जाती है
सारंगी की गूँज

दो-

हरजाई,आवारा मानसून
किन गलियों में डोलता है
ताक़ती रहती है रेत
मनचले के रंग ढंग

दुहाग दी गयी रानी सी रेत
वियोग की आग में तपती है
खुश हो लेती है चार बूंदे पा कर
सहेज लेती है
दो बूँद प्यार
कंगाल के धन सा

आकंठ आसक्ता रेत
कभी कभी फुसफुसा देती है कान में
सिर्फ एक दिन तो दो कभी
मुझे भी

1 comment:

nirupama said...

jeevan yapan thhos dharatal,katu kathin yah kathinayee !!