Wednesday, October 17, 2012

खुरुंड खरोंचे

खुरुंड खरोंचे
धरती खोदें
किसी पेड़ की
छाल छील दें
पिथ कर देंगे
इक मेंढक को
मर्म तलाशें
आक्यु पंक्चर की सुई के
नोक बनायें
बड़े जतन से
शब्द बाण की

तालाबों पर फैली काई
अंदर कहीं
फ़ैल जायेगी
खपरैलों में छिपी छिपकली
कब सर पर
आ कर टपकेगी
इक गोरैया
उड़ जायेगी

किसी जिबह होते
बकरे की आँख
आसमां से झाँकेगी 

वक्त की नदी

वक्त की बहती नदी ये
काटती रहती किनारे
लील जाती द्वीप कितने
नित्य खुलता
मोर्चा कोई नया ही
जीत होगी एक पर तो
दुसरे पर हार निश्चित

कब पलट ले धार
कर बंजर
निकल जाये कहीं से
कब बने
अल्हड जवानी
कब बने ये
धीर प्रौढा
कब कहाँ टसके
बुढ़ापे की कसक सी

जाल मछुआरे का भर दे
मछलियों से
या कि
अटका दे
कोई घड़ियाल
फाड़े जाल को जो
हो भंवर तिलिस्मी
कौन जाने

बस कि
इक तैराक कोई
जानता है
नाज नखरे इस नदी के
ढूंढ लेता है
नदी में
जलपरी के
वो सुनहरी पंख
इक दिन