Wednesday, December 28, 2011

नया साल

हर साल होता है ऐसा ही
बदल जायेगा साल
बदल जायेंगे
हस्ताक्षरों के नीचे
लिखे जाने वाले अंक
बदल जायेंगे
कलेंडर डायरी

होटलों में
दारू के गिलासों में
डूब जायेगा
साल का एक अंक
उन्मत्त भीड़ की साक्षी में

लेकिन
बदल कर भी
न बदलेगी तारीख
नहीं बदलेगा
ठिठुरती देह पर पड़ा कम्बल
नहीं बदलेगा
अंक ज्योतिष द्वारा
निर्धारित भाग्यांक

साल बदल तो जायेगा
पर नया कब होगा ?

Sunday, December 25, 2011

कस्बे में ठण्ड

सूरज के विरुद्ध
षड्यंत्र रच
आततायी कोहरे को
निमंत्रण किस ने दिया
कोई नहीं जानता

ठण्ड खाया क़स्बा
पथरा गया है
हरारत महसूस होती है
ज्वर हो तो ही

अलाव तापते लोग
दिखाई नहीं देते
बस खांसते,खंखारते हैं
बंद कमरों में

सक्षम आदेश बिना ही
अनधिकृत कर्फ्यू
जारी हो गया
कस्बे में

जमाव बिंदु से नीचे पहुंचे
पारे ने
नलों का पानी ही नहीं
जमा दिया
कस्बे की
धमनियों का रक्त भी

रजाई में दुबका क़स्बा
उनींदा पड़ा रहेगा
दिन भर
मौसम को कोसता

इस आलसी
आत्म समर्पण को
ललकारती कोई आवाज़
एक दिन गूंजेगी कस्बे में
उस दिन भी शायद
अंगडाई ही ले क़स्बा

सूरज तुम कब आओगे
इस कोहरे की चादर को
फाड कर

मैं उस दिन
सूर्य नमस्कार के मन्त्र
नहीं जपूंगा
सीधा पी जाऊँगा तुम्हे
आँखों से ही

जागेगा ये उनींदा
क़स्बा भी

Monday, December 19, 2011

एक गज़ल

प्यास मेरी ओस चाटे से बुझी कब
सूर्य की पहली किरण मुझ को मिली कब

जो पहाड़ों से बड़ी निर्मल चली थी
एक नाले ने मिटा दी,वो नदी कब

कारकुन सरकार के इस को संभालें
ये गली मेरी,रही,मेरी गली कब

सूख जाती हैं खड़ी फसलें,गज़ब है
आसमां से अम्ल की बारिश हुई कब

इक घने कोहरे मे लिपटी बस्तियां हैं
लाख चाहा,धुप की खिडकी खुली कब

पार चौखट के थी इक रंगीन दुनिया
दो कदम विश्वास से लड़की चली कब

Tuesday, December 13, 2011

शंकरी ताई

खूबसूरत जवान विधवा
होने के खतरे
शंकरी ताई से ज्यादा
कौन जानता है

आँगन मे आई
चिड़िया भी
परों मे बाँध ले
जाती चार बात
टपका देती
किसी भी कान मे

कस्बे के जैसे
हज़ार आँख कान
होते हैं

जब तक ताऊ था
तब तक
ताऊ का 'होना' , 'न होना '
बराबर था
शंकरी ताई के लिए

पर आज जब ताऊ नहीं है
तब ताऊ का 'होना','न होना'
बराबर नहीं है
शंकरी ताई के लिए

सिरहाने लट्ठ रख कर सोई ताई
पसीने से नहाई
रोज जाग जाती है
बुरा सपना देख कर

उसांसती है
'बगैर मर्द कि औरत
जैसे हर गैर मर्द कि औरत'

जैसा भी था
जिंदगी मे
था तो एक मर्द
क्यों चला गया रे

Tuesday, December 6, 2011

ek gazal

जब भी मैंने रात का साया घिरते देखा
साथ सुबह को भी अंगडाई लेते देखा

इक सपना गर लाखों सपनों में ढल जाए
उस सपने को सच में सदा बदलते देखा

तितली के रंगों को छूने की चाहत थी
पर गिरगिट को मेरा सौदा करते देखा

कानूनों पर बहस सदन में न हो पायी
सारहीन बातों पर मगर झगड़ते देखा

मर्द और औरत के रिश्तों के पुराण से
शायर जी को कभी न आगे बढते देखा

हारा जितनी बार लड़ाई छोटी छोटी
पेशानी पर माँ का होंठ लरजते देखा

सूरज से यारी की कीमत चुका चुका हूँ
अपना साया भरी दुपहरी जलते देखा

मेरे माथे की शिकनें गहरी हो आई
बेटी को जब आईने में सजते देखा

बातों का जो खाते मालामाल हुए हैं
हाथों का कारीगर ,पाँव रगड़ते देखा

आँगन में इक अमलतास था बड़ा सजीला
बाबा के जाते ही उस को मरते देखा

सहज तपस्या करता था मैं इक कोने में
देवराज ने सिंहासन क्यों हिलते देखा

Saturday, December 3, 2011

रेत माघ में

रजाई में दुबका सूरज
जब देर से उठेगा
जब बर्फ सी हुई रेत भी
अलसाई पड़ी रहेगी,अकारण
बस आलस्य ओढ़े हुए

सीली रेत सिमट आएगी मुट्ठी में
संवेदन शून्य
ऑपेरशन टेबल पर पड़े
मरीज सी

कोहरा कर रहा होगा
गुप्त मंत्रणा
विश्वस्त सिपहसालारों से
साम्राज्य विस्तार की

ऊँट या भेड़
के बालों को कतर कर
चारों ओर से चुभने वाले
कम्बलनुमा टुकड़े को ओढ़े
कुनमुना रहा होगा बचपन

खंखार रहा होगा बुढ़ापा
पड़े होंगे जवान शरीर चिपक कर
परस्पर ऊष्मा का
आदान प्रदान करते हुए

दुबकी होंगी भेड़ें
ऊन की बोरी बनी
कोई कुत्ता नहीं भोंकेगा
अकेला टिमटिमा रहा होगा
भोर का तारा

बस मस्ताया ऊँट
जीभ लटका कर
निकाल रहा होगा विचित्र आवाजें
कर रहा होगा प्रणय निवेदन

बूढी दादी राम के नाम के साथ
बहुओं के नाम का जाप भी
कर रही होगी मन ही मन

माघ की अलस भोर में
सुन्न पड़ा होगा रेगिस्तान
बर्फ में डुबोई
अंगुली सा

Friday, December 2, 2011

ek gazal

मायने जिंदगी के बदलते रहे
फैसले कुछ जरूरी थे ,टलते रहे

हाथ की ये लकीरें जो चुभने लगी
हाथ ही हम सिरे से बदलते रहे

सरसराते रहे ,कुलबुलाते रहे
गो कि उड़ ना सके बस उछलते रहे

हम गुबारों को हासिल समझते रहे
कारवां फासले से निकलते रहे

जो उठे सर सभी वो कलम हो गए
चींटियों के मगर पर निकलते रहे

आँख काँटों की फसलें उगाती रही
कुछ दुपट्टे लजाते ,सँभलते रहे

Wednesday, November 30, 2011

ek gazal

मिल कर भी जो नहीं मिली आज़ादी देखो
पीले चेहरों की तस्वीर गुलाबी देखो

बदले चेहरे पर ढर्रा कोई ना बदला
दूल्हा बदले , बदले णा बाराती देखो

रोज आंकड़े चमकाते तस्वीर मुल्क की
मगर आंकड़ों के साये बदहाली देखो

उत्सव नया एक राजधानी में होगा
बढ़ जायेगी हम पर मगर उधारी देखो

खेल खेल कर थके हुए मोहरों की किस्मत
इक डब्बे में प्यादे ,राजा ,रानी देखो

आसमान में चाहे कितना घटाटोप हो
तल्ख़ हवाओं की लेकिन तैय्यारी देखो

Friday, November 25, 2011

बच्चे बड़े हो गए हैं

बच्चे नहीं खेलते
गिल्ली-डंडा ,लुका-छिपी
सतोलिया, मारदड़ा
नहीं दिखते
भागते दौड़ते
कूदते फांदते
रोते झींकते
गाते गुनगुनाते
गलियों में

बच्चे घरों में हैं
माँ बाप की
चौकस निगाहों के साये में
पढ़ रहे हैं
कम्पूटर के चूहे से खेल रहे हैं
समझदार हो रहे हैं
भविष्य बना रहे हैं

बच्चों के पास किताबें हैं
गेजेट्स हैं
मोबाइल है
समझ है
बचपन नहीं है

नहीं जानते
रेत के घर बनाना
काली कुतिया के पिल्लों की गिनती
मुंडेरों और डाल से गिर कर
नहीं छिलाते घुटने
पतंग ,कंचे ,माचिस की डिब्बी के
खजाने नहीं हैं उन के पास

नहीं जानते
कैसे घिसटा ले जाता है
गाय का नवजात बछड़ा
पेड़ जंगल नदी बारिश
किसी को महसूस नहीं किया

फिर भी सब कुछ जानते हैं बच्चे
टीवी इन्टरनेट से
ज्ञानी हुए बच्चे
सब कुछ जानते हैं
आश्चर्य नहीं होता उन्हें
किसी बात पर

आश्चर्य और उत्सुकता
गढते हैं जीवन
बच्चे पढते हैं जीवन

समझदार बच्चे
पर्यावरण पर भाषण देंगे
वातानुकूलित कक्ष में
नीम और पीपल में
फर्क जाने बिना

Tuesday, November 22, 2011

कस्बे का कोलाज .....छुटभैये नेता रामधन जी

एक

विधायक
सिर्फ 'जीतता' है
'बनता' है
जब
रामधन जी
'बनाते' हैं

दो

कुत्ता ,सांप , बगुला
गिरगिट ,लोमड़ी
सब को मिला कर
रामधनिया
बन जाता है
रामधन जी

तीन

सभी सरकारी योजना
गुजरती हैं
रामधन जी कि छलनी से
छोड़ जाती हैं
कुछ न कुछ

चार

रामधन जी को
अहसान करना
जताना
और भुनाना आता है

पांच

रामधन जी जानते हैं
सरकारी कारिंदों कि
नब्ज़ ,जरूरत ,औकात
देते है
चपत , प्यार और लात

Friday, November 18, 2011

गज़ल

आँख से काजल चुराना ,खेल है
लब्ज़ का जादू दिखाना ,खेल है

हाथ में कासा औ थैली पीठ पर
रोज यूँ फेरी लगाना ,खेल है

कल जिसे फेंका था कूड़ेदान में
आज फिर से सर चढाना ,खेल है

मौत जिस घर में जवां हो कर चुकी
उस जगह जाजम ज़माना ,खेल है

लग रही ज़म्हूरियत उम्मीद से
वाह ज़न्खो की ज़नाना, खेल है

वक्त के जो कल ठिकानेदार थे
आज खुद ढूंढें ठिकाना ,खेल है

हर गली के मोड पर भैरों ,शनि
कब पड़े किस को मनाना,खेल है

खूब ये बेबाक लहजा बात का
बात बिन बातें बनाना ,खेल है

Wednesday, November 16, 2011

एक गज़ल

जो जुबां ने कहा सब जुबानी हुआ
अश्क दिल कि मगर तर्जुमानी हुआ

खूब गरजा,मगर, फिर भी बादल रहा
जब बरसने लगा,तब ही पानी हुआ

दिन में जो कि पसीने में महका बहुत
रात में जिस्म वो रात रानी हुआ

लाख चाहत के किस्से सुनाते रहे
लब्ज़ तेरा,मगर,इक कहानी हुआ

गो किया था ज़मीं पर ज़मीं के लिए
उन का दावा मगर आसमानी हुआ

जब गिनाने लगे वो गिनाते रहे
सांस का सिलसिला महरबानी हुआ

कागजों में ज़मींदार मालिक रहा
एक कतरा पसीना किसानी हुआ

Tuesday, November 15, 2011

कस्बे में सुबह

भोर का तारा
रोज ऐलान करता है
लेकिन नहीं होती कस्बे में
भोर सी भोर

मुरझाया सा सूरज
रोज आ बैठता है
ड्यूटी पर
ऊबे नगरपालिका के बाबू सा
कड़काता है ऊँगलियाँ

सूरज को आना ही है
इसलिए आ जाता है
रोजाना
बिखर जाता है
थोडा थोडा
मंदिर के कलश पर
मस्जिद की मीनार पर
गली गली
आँगन आँगन

खटका देता है
कुछ कुंडियां
जगा देता है
छतों पर
ऊबे अकड़ाये से पड़े
कुछ नर मादा शरीरों को
झाड़ू को हिला देता है
बर्तनों को खनका देता है
बूढ़े मुंह में रख देता है
राम का नाम
बच्चों को पकड़ा देता है
माँ का स्तन

लेकिन नहीं पीता
एक प्याला चाय
किसी के भी साथ बैठ कर
नहीं करता
किसी को भी गुदगुदी

समझदार सूरज
चुपचाप पकड़ा देता है
तमाखू का मंजन
बीडी,खैनी ,चिलम

औरतों बच्चों की चिल्ल पों
मंदिर की आरती
मस्जिद की अजान
दूधियों की बाइक की गुर्राहट
सारी आवाजें एक साथ
गड्ड मड्ड सुनता सूरज

जा बैठता है
बाजार के बीच वाले
पीपल गट्टे पर
टुकुर टुकुर ताकता है
धीरे धीरे खुलती दुकानें
चाय पानी ,पान ,किराना
कपडे, जूते,मनिहारी का सामान

सूरज को पता है
कुछ इंसान आज भी
देंगे उस को अर्ध्य
कोई कोई
कर रहा होगा
सूर्य नमस्कार

सब का धन्यवाद कर
ऊबा सा सूर्स्ज
मिलेगा नुझे
गली के
किसी भी मोड पर
पूछेगा मुझ से
अपने दिनकर ,दिवाकर जैसे
नामों के अर्थ

मैं कहूँगा
सूरज
अगर तुम
जगाना ही चाहते हो
इस उनींदे कस्बे को
अगर वास्तव में चाहते हो
दिन करना
तो सीखना होगा तुम्हे
उदय होने का सलीका

Saturday, November 12, 2011

शंकरी ताई

एक

शंकरी ताई पर
ऊंगली उठाने वाले
सामने पड़ने पर
आँख भी नहीं उठा पाते

दो

अधेड़ शराबी ताऊ की
जवान आग सी पत्नी
शंकरी ताई
लगाती है आग
पूरे कस्बे के सीने में

तीन

बेर ,खरबूजा
आम, अमरुद
काकडिया,तुम्बे की
मिली जुली खुशबू से
भी तेज
शंकरी ताई की खुशबू से
खींचे चले जाते हैं बच्चे
सख्त मनाही के बावजूद

Thursday, November 10, 2011

क़स्बा सांप है

क़स्बा
सांप सा रेंगता रहता है
फन उठाता है तभी
जब दब जाए
उस की अनेक पूंछों में से
कोई एक

हुनरमंद लोग
अपनी बीन पिटारा लिए
ताक में रहते हैं
इरादतन दबाते हैं पूँछ
निकाल लेते हैं जहर
आवश्यकतानुसार
क़स्बा
फिर रेंगने लगता है

सांप हो कर भी
सांप सा नहीं काट पाया
क़स्बा कभी भी

बस जहर पैदा करता रहा
हुनरमंदों के लिए

Tuesday, November 8, 2011

कस्बे का कोलाज

एक

क़स्बा
न गाँव रह पाया
न शहर हो पाया
जब भी हिकारत से देखा
कस्बे ने
गाँव को
शहर कि ओर से आई आंधी ने
भर दी रेत
आँख और मुंह में

दो

तिलिस्मी कस्बे में
कैसे भी बना लो
घर की दीवार
पारदर्शी हो जाती है

तीन

जनगणना वाले
कस्बे में
सर तो गिन लेते हैं
- खाने वाले
हाथ कहाँ गिनते हैं
- कमाने वाले

चार

दोस्त की बहन
और बहन की सहेलियां
बहन ही होती थी
कल तक तो

पांच

बल्लू को पता है
काली कुतिया ने
कितने पिल्ले दिए
कहाँ है कीड़ी-नगरा
कबूतरी ने अंडे कहाँ दिए
कोचरी रात को
कौन सी जांटी पर बोलती है
कुत्ते रात को
क्यों रोते हैं
पर मोहल्ले के छोरे
नहीं सुनते उस की बात
कहते हैं
बल्लू बावला

कुछ तो है जो बदला है

माँ बनाती थी रोटी
पहली गाय की
आखरी कुत्ते की
एक बामणी दादी की
एक मेहतरानी की

अलस्सुबह
सांड आ जाता
दरवाज़े पर
गुड की डली के लिए

कबूतर का चुग्गा
कीड़ीयों का आटा
ग्यारस,अमावस,पूनम का सीधा
डाकौत का तेल
काली कुतिया के ब्याने पर
तेल गुड का हलवा
सब कुछ निकल आता था
उस घर से
जिस में विलासिता के नाम पर
एक टेबल पंखा था

आज सामान से भरे घर से
कुछ भी नहीं निकलता
सिवाय कर्कश आवाजों के

Saturday, October 15, 2011

एक गज़ल

गर कोई लम्हा मिला है,वक्त कि रफ़्तार में
इक मुहर सा रख लिया ,हम ने छिपा दस्तार में

देखिएगा जिस्म को इक रोज नंगी आँख से
जानियेगा,फर्क क्या,मालिक किरायेदार में

कीमतन,वो चाहता है मुझ को,अब मैं क्या कहूँ
अब भी बाकी है,बहुत कुछ,जो नहीं बाजार में

बात मेरी तुम तलक पहुंची नहीं,पक्का है ये
कुछ कमी तो रह गयी होगी मेरे इज़हार में

एक आंधी ही मिटा देती है बस जिन का वजूद
ढूँढियेगा नक्श-ए-पा क्या रेत के विस्तार में

झाँक लेते हम कभी आ मौज में उस पार भी
गर कहीं होती कोई, खिडकी खुली, दीवार में

Thursday, September 22, 2011

क्षमा करना प्रिये

मैं समझता था
शायद प्रेम कोई
गैस का गुब्बारा है
जिस में बैठ कर
छुआ जा सकता है आसमान
महसूस किया जा सकता है
स्वयं को उड़ते हुए
भरा जा सकता है
आसमान को बांहों में
या हुआ जा सकता है
आसमान ही
उड़ा जा सकता है
एक पंछी की तरह
स्वतंत्र,निर्भार ,मुक्त

शायद हुआ जा सकता है
समुद्र
ठाठें मारता हुआ
जो लहर लहर आ कर
भिगो दे
तन ही नहीं मन भी

शायद प्यार
बो देता है कोई बीज
मन में रजनीगन्धा का
जिस की गंध में
मत्त हो
गुजारी जा सकती है
ये छोटी सी जिंदगी

पर शायद तुम्हे
ज़रूरत एक खूँटी की थी
जिस पर टांग सको तुम
अपने उतारे हुए कपडे
और वापिस पहन सको
अपनी सुविधानुसार

तुम्हे आवश्यकता थी
एक ब्लैक बोर्ड की
जिस पर लिख सको तुम
अपने उपालम्भ,खीझ,उदगार
मिटा सको और पुनः लिख सको
जैसे जी चाहे
बिना ये सोचे कि ब्लैक बोर्ड भी
अगर सोच सकता तो
कैसा लगता उसे

या तुम्हे चाहिए कोई चाबी का गुच्छा
जो लटका रहे
तुम्हारी कमर से
बजता रहे तुम्हारी
पदचाप के साथ
देता रहे ताल
जिस से खोल सको तुम
वो संदूक
जिस में बंद है
तुम्हारे बचपन के कुछ खिलोने
और बहला सको खुद को

क्षमा करना प्रिये
मैं नहीं हो सका
आकाश,समुद्र या गंध
मैं नहीं हो पाऊंगा
खूँटी ,ब्लैक बोर्ड या चाबी का गुच्छा भी

Friday, September 16, 2011

एक गज़ल

मैं बेचारा नहीं हूँ
थका हारा नहीं हूँ

ग़दर की जात का हूँ
महज़ नारा नहीं हूँ

गजर हूँ भोर का फिर
भले तारा नहीं हूँ

पढ़ो मज़मून हूँ मैं
मैं हरकारा नहीं हूँ

हूँ मालिक भी मणि का
ज़हर सारा नहीं हूँ

हूँ मीठा,हूँ कसैला
फक़त खारा नहीं हूँ

जो हूँ हक से हूँ प्यारे
तेरे द्वारा नहीं हूँ

Monday, September 12, 2011

प्यार करने के पार

बहुत अंतर है
प्रेम करने और
प्रेम में होने में
मैं प्रेम करता हूँ
तुम प्रेम में होती हो

मैं प्रेम कर रहा होता हूँ
तो शायद
जी रहा होता हूँ एक तलाश
मेरी अनंत प्यास
बार बार तुम्हारी देह
और देह के पार
ढूँढती है
इक मानसरोवर
और मैं हर बार
समुद्र का खारापन
मुंह में लिए स्वयं को
खुजली का मरीज पाता हूँ
मांसल या वायवीय
कोई अनुभव
नहीं बन पाता
इस प्यास की तृप्ति
क्यों की यह प्यास
मानसरोवर की है
और उस मानसरोवर के जल
का सिर्फ
रास्ता ही जाता है तुम से

कितना ही आरोपित करो तुम
सच यही है कि
मैं जो ढूंढ रहा हूँ
वो तुम नहीं हो
तुम में मुझे दिखाई देता है
उस का आभास
जो चाहिए मुझे
इसीलिए चाहता हूँ तुम्हे बार बार
मोहभंग भी
होता है बार बार

तुम भी जीना चाहती हो जो
वो नहीं है मेरे पास
वो भी कहीं है मेरे पार
मैं भी हूँ एक द्वार ही
और दो द्वार
एक दूसरे के भीतर से
नहीं निकल सकते
वही पार हो पायेगा
द्वार से जो नहीं रहेगा द्वार
झाँक कर देखेगा
उस पार

Monday, August 29, 2011

मेरी गली

ये मेरी गली है
मेरी अपनी
इस में ही मैं
लोट लोट कर बड़ा हुआ हूँ
कितने चित्र
टंगे हैं मेरे
इस के चित पर

वह दिन जब मैं
नाक बहाता घूमा करता
वह दिन जब मैं
पट्टी पर क ख लिखता था

वह दिन जब
मेरी रेखें फूटी फूटी थी
वह दिन जब
मैं खुद पर ही लट्टू होता था
वह दिन
किरकिट का पहला चक्का मारा था
वह दिन जब
पहला पहला सुट्टा मारा था

वह दिन जब
मैंने तोड़ी भरपूर निम्बोरी
मुंह मेरा
मीठा कड़वा ,कड़वा मीठा था

वह दिन जब
मैंने चोरा था एक रुपैया
खट्टी मीठी गोली से जेबें भारी थी
उस दिन पूरी दुनिया से अपनी यारी थी

झूल गया था
बन्दर सा उस नीम डाल से
माँ के हाथों
चप्पल थी
जाने चिमटा था

कितनी बार छिलाये
अपने घुटने मैंने
फिर भी गिल्ली -डंडा ,कंचे
खेले मैंने

रातों लुका छिपी
खेली है इन बाड़ों में
हरा समंदर गोपी चंदर
बोलो मछली कितना पानी

क्या बोलूं
जाने कितना कितना पानी था
पानी था कीचड़ का लेकिन
नाम नहीं था

हाँ ये गली खुली हुई
दोनों छोरों से
जाने कैसे
एक और से बंद हो गयी

अब मैं इस में नहीं
मुझी में ये जीती है
अंजुरी भर भर कर
रातों मुझ को पीती है

Monday, August 22, 2011

एक गज़ल

है परत-दर-परत क्या बना आदमी
जैसे कोहरे का साया घना आदमी

जब मुकाबिल खड़ा अक्स खुद का हुआ
कर न पाया कभी सामना आदमी

चाशनी में मुहब्बत की सर तक पगा
और अगले ही पल कटखना आदमी

न रहो मन जले,गर रहो तन जले
जैसे है इक मकां अधबना आदमी

इस अलस भोर में आधा जागा हुआ
आधा सोता हुआ,अनमना आदमी

ख्वाहिशें,बंदिशें,साजिशें लाख हों
भूल पाया नहीं धड़कना आदमी

एक पाकीज़गी है जो कायम रही
यूँ गलाज़त में कितना सना आदमी

Thursday, August 4, 2011

एक गज़ल

एक गज़ल

तस्वीरं जिन की छपती अख़बारों में
लोग वही मिल जाते हैं गलियारों में

खाक,कफ़न और आग कहाँ मिल पाएगी
जिंदा ही जब चुने गए दीवारों में

वो बाजारू कभी कहाँ कहलाते हैं
अक्सर जो घूमा करते बाजारों में

एक सुबह का अक्स कभी दिखलाया था
ढूंढ रहा हूँ आकाशी विस्तारों में

संविधान की पोथी मुझे दिखाओ तो
क्या लिक्खा है वहाँ मूल अधिकारों में

रोज योजना एक नयी आ जाती है
और भीड़ बढ़ जाती कई कतारों में

वोट लिया और सजा पालकी जा बैठे
वोट दिया और शामिल हुए कहारों में

Tuesday, August 2, 2011

गज़ल मेरे प्रकाशनाधीन संग्रह से

यूँ तो मंजिल को जान लेते हैं
रास्ते इम्तिहान लेते हैं

सोच अपनी हुई परिंदों सी
जैसे चाहे उड़ान लेते हैं

जो भी देखा है, वो ही कहते हैं
फिर भी हलफन बयान लेते हैं

वो ही बाहक जवान होते हैं
कर गुजरते जो ठान लेते हैं

जिंदगी का गणित वही समझे
जो कभी दिल की मान लेते हैं

लोग झोली भी भर नहीं पाते
लेने वाले ज़हान लेते हैं

वो जो आला गुनाह करते हैं
रहनुमा बन कमान लेते हैं

Sunday, July 17, 2011

baarishen

मौज आई ,खूब आई बारिशें
ऊपरी जैसे कमाई बारिशें

सुन रहे हर बार कुछ बदलाव है
पर वही देखी दिखाई बारिशें

एक सहरा लाख चिल्लाता रहा
गर न आई ,तो न आई बारिशें

वो समन्दर झेलता तूफ़ान अब
जिस समन्दर ने बनाई बारिशें

हम पकड़ दामन हया का रह गये
देर तक लेकिन नहाई बारिशें

इक तरफ हैं बाढ़,है सूखा कहीं
जान दे कर यूँ निभाई बारिशें

आसमां आयोग अब बैठायेगा
दायरों में क्यूँ समाई बारिशें

Monday, July 4, 2011

मेरे प्रकाशनाधीन संग्रह से

है ये एलाँ ज़रूरी सुनो साहिबो
वो जो दीवार पर है पढ़ो साहिबो

ये जो फाइल है कागज का टुकड़ा नहीं
आदमी की है किस्मत गढो साहिबो

हक मिले आप को ये गिला तो नहीं
फ़र्ज़ को भी अदा तो करो साहिबो

जानवर भी भरे पेट खाता नहीं
अब सलीके से तुम भी चरो साहिबो

फोड दे आँख तिनका भी गर जा गिरे
इन हवाओं के रुख से डरो साहिबो

हुक्म आका का तो तुम बजाते ही हो
एक दिन अपने दिल की सुनो साहिबो

वो जो परचम बना आखरी आदमी
आदमी ही रहे दम भरो साहिबो

ये सुनहरी कलम,मार दे,छोड़ दे
साथ किस के हो अब तो चुनो साहिबो

वक्त की ये नदी अब न यूँ ही बहे
दस्तखत इस पे कोई जड़ो साहिबो

Wednesday, June 29, 2011

रिश्ता और रेगिस्तान

रिश्ता एक खेजड़ी है
जो चाहे छांग दी जाये
कितनी बार
पनप आती है हर बार
दुगुने जोश से
पनप जाता है सब कुछ जिस के साये में.

रिश्ता नहीं होता रोहिडा
जो अंगारे से गंधहीन फूल लिये
खिला रहता है / बियाबान में
कुछ भी नहीं पनपता जिस के साये में

रिश्ता आक भी नहीं है
जो उड़ा देता है
बीजों को रुई सा
पूरे माहौल में
चिपचिपे दूध सा / चिपक जाता है
अपनी ज़हरीली तासीर लिये

रेत जानती है रिश्तों को
चिपक जाती है तन पर प्यार से
हट जाती है उतनी ही आसानी से
पूरा मौका देती है
पनपने का / खुलने का
रेत हक नहीं जताती
मालिकाना भी नहीं
रेत सिर्फ ढलना जानती है
आप की सहूलियत के अनुसार
रिस जाती है बंद मुट्ठी से भी
चुपचाप बिना किसी शिकायत के
अगर रिसने दिया जाये तो

रेत नहीं जानती
रिश्ते को कोई /नाम देना भी
बस एक नामालूम सी
उपस्थिति बनी रहती है
ज़ेहन से शरीर तक

रिश्ता न ज़हरीला चिपचिपा दूध है
न अंगार रंग का
गंध रहित फूल
वो है खेजडी सा
जो पनपती है / पनपाती है
देती है लूँग,सांगरी
जल लेती है चूल्हे में भी
वो है रेत सा
जो आप की जिंदगी में
है भी और नहीं भी

रिश्ता जीता है
रेत में / खेजड़ी में
इसीलिये जीता है
रेगिस्तान के आदमी में

Monday, June 27, 2011

fog ki jad aur aaadmi ka man

फोग की जड़ें
धंस जाती हैं टीलों में
कैसे भी /आंकी बांकी
बिना किसी तय स्वरुप के
बढ़ जाती है / किधर भी
अंगड़ाई लेती
अल्हड़ युवती से

वैसे ही जैसे
चल देता है
आदमी का मन
कहीं भी / किधर भी

कभी होता है
चांदनी रात में बांसुरी की तान
पिघल कर / फ़ैल जाता है
दर्द का मीठा अहसास बन कर
रेत के टीलों पर / मीलों तक

कभी होता है
मेमने के कोमल रोओं सा
नर्म, नाज़ुक, मखमली
कोमल अहसास सा
हल्का हल्का
कीमती सपने की तरह

कभी चालाक लोमड़ी सा
दुबका होता घात लगा कर
तेज कांटे सा
कहीं भी चुभने को तैयार

कभी होता है
लपलपाती जीभ से टपकती
जुगुप्सित लार सा
महज एक
आदिम नग्न लालसा

नित नये खेल खेलता
आदमी का मन
कहीं भी धंस जाता है
फ़ैल जाता है
बाँध लेता है
भरेपूरे आदमी को

वैसे ही जैसे
फोग की जड़
बाँध लेती है
एक भरपूर टीले को

Saturday, June 25, 2011

sawan ke dohe ,tatha kuchh any bhi

बादल बरसा टूट कर,नेह भरा अनुबंध
हुलस हुलस नदिया बही,टूट गए तटबंध

बूँद बूँद बरसा कभी,कभी मूसलाधार
आवारा सावन करे,मनमौजी व्यवहार

फिर से इक दिन आयेगा,फिर से होगी रात
फिर फिर सावन आयेगा,फिर होगी बरसात

ये सावन है हाथ में,पूरे कर सब चाव
क्या जाने कितना चले,ये कागज़ की नाव

बिजली कडकी जोर से,घिरी घटा घनघोर
दबे पाँव बाहर हुआ,मेरे मन का चोर

ये सावन है सोलवां,कर सोलह श्रृंगार
ये नदिया बरसात की,बहनी है दिन चार

उठी अनूठी बादली,घटाटोप आकाश
फिर भी बाकी रह गयी,इस धरती की प्यास

तन भीगे तो बात क्या,मन भीगे तो बात
बूंदों की है जात क्या,आंसू की है जात

रिम झिम का संगीत है,बूँद बूँद अनमोल
पानी का ही तोल है,पानी का ही मोल

ये सावन के चोंचले,अब बदली अब धूप
जीवन फिर आकाश है,कितने बदले रूप

आषाढी आकाश से,टपकी पहली बूँद
कोई जीवन पी गया,छत पर आँखें मूँद

सावन की अठखेलियाँ,अब गुमसुम,अब शोर
बिन सूरज फिर आ गयी, भीगी भीगी भोर

भीगी भीगी भोर थी,अभी चटकती धूप
ये जीवन का तौर है,पल पल बदले रूप

कहीं टपकती झोंपड़ी ,कहीं चल रहे दौर
ये सावन कुछ और है,वो सावन कुछ और
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सब कुछ मिलता मोल से,सांस मिले बिन मोल
मोल मिला किस काम का,बिना मोल अनमोल

मैं कहता संसार है,तू माया का जाल
आ देखें निकले अगर,कहीं बाल की खाल

आँगन आँगन लोग हैं,देहरी देहरी चाह
मंदिर मंदिर देवता,चौखट चौखट आह

सगा सहोदर दूर है,और पड़ोसी पास
रिश्तों से आने लगी कैसे खट्टी बास

कूड़े फांदे मौज में समय गैंद का खेल
ये घोडा बिगडैल है लेता नहीं नकेल

आँगन बेटी डोलती जैसे सपन अडोल
बाप चुका पाया नहीं उस सपने का मोल

सूरज को लुढ़का गया फिर कोई इस ओर
सुबह सवेरे आ गयी अलसाई सी भोर

कहीं सीढियाँ बन रहे, कहीं बिछौने लोग
औने पौने बिक रहे,बौने बौने लोग

Thursday, June 23, 2011

barsat ret aur zindagi

टूट कर बरसी बरसात के बाद
इन टीलों पर
बहुत आसान होता है
रेत को किसी भी रूप में ढालना

मेरे पाँव पर
रेत को थपक थपक कर
तुम ने जो इग्लुनुमा
रचना बनाई थी
कहा था उसे घर

मैं भी बहुत तल्लीनता से
इकट्ठे कर रहा था
उसे सजाने के सामान
कोई तिनका,कंकर,काँटा
किसी झाड़ी की डाली
कोई यूँ ही सा जंगली फूल
चिकनी मिटटी के ढेले

तुम ने सब कोई नाम
कोई अर्थ दे दिया था

अगले दिन जब
हम वहां पहुंचे
तो कुछ नहीं था
एक आंधी उड़ा ले गयी थी
सब कुछ

तब हम कितनी शिद्दत से
महसूस करते थे
छोटे छोटे सुख दुःख

कहाँ जानता था तब मैं
ज़िन्दगी ऐसे ही
घरोंदे बनाने
और सुख दुःख सहेजने का नाम है

Wednesday, June 22, 2011

इस साल भी रब्बुड़ी
नहीं जायेगी मायके
इस साल भी सूना र्रहेगा नीम
नहीं डलेगा कोई झूला

इस साल भी दिसावर ही रहेगा
मरवण का साहबा

इस साल भी रब्बुड़ी
इंतजार करेगी काग का
और मरवण मनुहार करेगी
कुरजां की

रेगिस्तान
एक अनंत प्रतीक्षा है


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चौकड़ी भरेगा हरिण
बालू रेत पर सरसरायेंगे
बांडी, पैणे
सांडा और गोह भी
दिख जाये शायद
गोडावण भी
दौड़ जायेगी लोमड़ी सामने से
खरगोश,तीतर
दुबके होंगे जान बचा कर
सेहली डरा रही होगी
अपने नुकीले काँटों से
शायद दिख जाये
बाज का झपट्टा भी

इतना वीरान भी
नहीं होता रेगिस्तान

Monday, June 20, 2011

virah ke rang

विरह के रंग
एक-
गाँव के मर्द
खाने-कमाने निकल गए हैं
कोलकाता,मुंबई,चेन्नई,गौहाटी
अरब,दुबई,क़तर,ओमान

रेगिस्तानी सिन्धी सारंगी
बजा रही है
विरह का स्थायी भाव

नये बने पक्के मकान में गूंजती
गाँव की औरतों की
आधी रात की सिसकियों में
डूब जाती है
सिक्कों की खनक

छा जाती है
सारंगी की गूँज

दो-

हरजाई,आवारा मानसून
किन गलियों में डोलता है
ताक़ती रहती है रेत
मनचले के रंग ढंग

दुहाग दी गयी रानी सी रेत
वियोग की आग में तपती है
खुश हो लेती है चार बूंदे पा कर
सहेज लेती है
दो बूँद प्यार
कंगाल के धन सा

आकंठ आसक्ता रेत
कभी कभी फुसफुसा देती है कान में
सिर्फ एक दिन तो दो कभी
मुझे भी

Saturday, June 18, 2011

thahar jara tu

मुझ से डर औ मुझे डरा तू
छिछला लेकिन दिख गहरा तू

साधन संसाधन सब तेरे
क्यों जीता है मरा मरा तू

बहुत बनैला और अघाया
लेकिन फिर भी बेसबरा तू

अभी हंसाये,अभी रुलाये
नाजनीन का सा नखरा तू

मेरे जीवन से कब निकला
चाहे कितना भी अखरा तू

हार और गुलदस्ते तेरे
मेरी बगिया का खतरा तू

इक दिन ये पक्का होना है
मैं बोलूँगा,ठहर जरा तू

Thursday, June 16, 2011

khuddari hai yaaro

बहुत ज़मीनी ये खुद्दारी है यारो
बस मिजाज़ की कारगुजारी है यारो

मखमल से अहसास अभी तक जिंदा है
माँ ने इतनी नज़र उतारी है यारो

इक सपने को भी ताबीर नहीं मिलती
पूरे जग की ज़िम्मेदारी है यारो

नाइंसाफी चलन पुराना दुनिया का
रीत रीत अब अपनी बारी है यारो

कई ढोंगियों की ज़मात सिर जोड़े है
शुरू मुल्क में रायशुमारी है यारो

सच्ची आवाज़ों का हमल गिरा देंगे
बहुत करीने की गद्दारी है यारो

धुप चांदनी टुकड़ा टुकड़ा ही देंगे
रोशनदानों को बीमारी है यारो

Saturday, June 11, 2011

aate jaate log

पूरा जीवन दाँव लगाते लोग
कब झोली से ज्यादा पाते लोग

राहों को मिल्कियत बताते हैं
चौराहे से आते जाते लोग

एक लहर सब ले जाती लेकिन
एक घरोंदा रोज बनाते लोग

चाहों को कितना चाहे चाहो
चाह नहीं मिटती मिट जाते लोग

वक़्त बिगड़ता है वक्तन वक्तन
वक़्त बिगड़ता वक़्त बनाते लोग

नाते-रिश्ते एक गहरा सागर
अपनी डोंगी पार लगाते लोग

एक संगीं सा राज बना जीना
राज बनाते राज छिपाते लोग

रिश्ते धीमी मौत मरा करते
चुपके चुपके शोक मानते लोग

दुनिया इक सतरंगी चादर है
कहीं ओढ़ते कहीं बिछाते लोग

Wednesday, June 8, 2011

sun baba

वैसे का वैसा है होरी,सुन बाबा
गिद्ध करे है मुर्दाखोरी,सुन बाबा

बस्ती को श्मशान बनाने का गुर ले
ताप रहे हैं कई अघोरी, सुन बाबा

मुल्क आवामी बातें एक बहाना है
सुर्खी किस ने कहाँ बटोरी, सुन बाबा

नूरा-कुश्ती,दुरभिसंधियाँ,समझौते
मगर सामने जोरा जोरी,सुन बाबा

मर्दानापन इक साज़िश की भेंट चढ़ा
कुछ जनखों ने खींस निपोरी,सुन बाबा

दुनिया में बस बूढ़े ही पैदा होते
सिसक रही है माँ की लोरी,सुन बाबा

आदम-आदमखोर,आदमीयत सहमी
सत्ता चाटे खून चटोरी,सुन बाबा

taapmapi aur ret

तापमापी के पारे पर
कसा जाता है रेत का धैर्य
ऊपर नीचे होते पारे को
रेत ताक़ती है
मॉनिटर पर चलते
ह्रदय की धड़कन के ग्राफ की तरह
ग्राफ बता सकता है
ह्रदय की धड़कन की गति
लेकिन नहीं नाप सकता
ह्रदय के भाव,कल्पनाएँ,उड़ान

वैसे ही पारा जानता है
रेत का ताप
लेकिन नहीं जान सकता
रेत की गहराई
रेत का दर्द
कैसे बन जाते हैं
समुद्र की लहरों से
एक के बाद एक
रेत के सम रूपाकार
छुपे छुपे हैं रेत के राज
किसी स्त्री मन की तरह

नहीं माप पायेगा तापमापी कभी भी कि रेत
क्यों गाती है चांदनी रात में
क्यों हरख जाती है पहली बरसात में
क्यों अलसाती है पूस कि रात में
क्यों चुपचाप होती है जेठ कि दुपहरी में
क्यों बन जाती है
काली-कराली आंधी
चक्रवात,प्रभंजन
असहनीय हो जाता है जब ताप

Monday, June 6, 2011

tapt ret ka prem

महायोगी सूरज रोज तपता है
उदय से अस्त तक
योगी सूरज के इस प्रताप को
समझती रेत
समझदार शिष्या की तरह
पंचाग्नि तापती योगिनी सी
तपती है दिन भर

तप्त रेत तापती है
सूरज की आग चुपचाप
बिना किसी शिकायत के
किसी भी चने को भून देने में सक्षम
भाड़ बनी रेत
सिर्फ धमका देती है
अपने बच्चों को
दुबक रहो कहीं भी
जहाँ भी मिल सके थोड़ी सी छांह

प्रेमी चाँद की दुलार भरी
रात की थपकियों से
तीसरे प्रहर तक
कठिनाई से सहज हुई रेत
प्रेम में सराबोर
मृदुल होने का प्रयास कर रही होती है
शीतल हुई रेत भूल जाये शायद
नित्य प्रति का पंचाग्नि तप

तभी सूरज वापिस आने का संकेत देने लगता है
लाल हुई दिशाएं दुन्दुभी बजाने लगती है
सूचना देती हैं योगिराज के आगमन की
रेत चाँद का हाथ झटक
पुनः तैयार हो रही है
गुरु योगिराज के साथ तपने के लिए

योग और प्रेम दोनों को जीती रेत
हमेशा सहज भाव से
दोनों को स्वीकार कर लेती है
दोनों को पूरे मनोयोग से जीती है

लेकिन रेत पगला जाती है
हवा के झोंको से
चंचला हुई उड़ती फिरती है
हवा क्या है
जो भ्रष्ट करती है
योग और प्रेम दोनों को

baaki hai

मुंह बाकी, ज़ुबान बाकी है
सफ़र बाकी,थकान बाकी है

जिस्म ही जिस्म हो गया चाहे
रूह के फिर निशान बाकी है

वायदामाफ़ है वो, खतरा है
अभी उस का बयान बाकी है

जो है मौजूद, जी रहे होंगे
घुटी सी दास्तान बाकी है

अभी बर्बाद कब हुई बस्ती
अधजले कुछ मकान बाकी है

आसमाँ साजिशें करे कितनी
हौसलों की उड़ान बाकी है

Sunday, June 5, 2011

neeela peela

लाल,हरा,नारंगी,नीला,पीला है
जो भी रंग मिला है,वही पनीला है

वो बेचारा, हम बेचारों जैसा है
बस बस्ती का पानी जरा नशीला है

खुल कर सांस नहीं ले पाओगे बाबा
मौसम का अंदाज़ बहुत जहरीला है

रीढ़ नहीं है, घुटनों के बल चलता है
बहुत लिजलिजा,ठंडा है,बर्फीला है

दुनिया पूरी जैसे रैम्प बनी कोई
बेलिबास का ही लिबास चमकीला है

भरी दुपहरी ,जैसा, वैसा शाम ढले
मेरा साया, बदला कब,शर्मीला है

ये आदम के बेटों की ही चोटें है
आसमान को शौक़ नहीं जो नीला है

Wednesday, June 1, 2011

कहीं नहीं

जब मंजिल का पता ठिकाना कहीं नहीं
रोज सफ़र है लेकिन जाना कहीं नहीं

जिस्म सजाना चलन चलाया आदम ने
थोड़ी सी ये रूह सजाना कहीं नहीं

धर्म, नस्ल और जात-पांत में भेद कहाँ
ये बिरादरी में कह पाना कहीं नहीं

मर जाने के लाखों कारण रोज मिले
पर जीने का एक बहाना कहीं नहीं

जिन राहों पर पहले चला नहीं कोई
उन राहों पर आना जाना कहीं नहीं

बरसों पहले दीन चलाया अकबर ने
फिर वैसा ही चलन चलाना कहीं नहीं

पीढ़ी को बर्बाद किये जाते नादाँ
एक सलीका दे वो दाना कहीं नहीं

Monday, May 30, 2011

रेत और भी

रेत और भी
एक-
रेत का बगूला
उतना ही ऊंचा उठता है
जितना निर्वात होता है केंद्र में
वैसे ही जैसे
आदमी उतना ही ऊंचा उठता है
जितना शांत होता है अन्दर से

दो-

कोसों तक जब सिर्फ सन्नाटा गूंजता है
तब बजाता है आदमी
बांसुरी,अळगोजा
मोरचंग,खड़ताल
रावणहत्था या सारंगी
बहुत अकेला हुआ आदमी
तब गाता है रेत राग
तीन-
जेठ की घाम में
धू धू करता है रेगिस्तान
साँय साँय करती है लू
भांय भांय करता है सन्नाटा
फिर भी भेड़ का एक मेमना
बचा रहता है
भेड़ हो कर भी

चार-

रोहिडा खड़ा है
अग्नि रंग के
लाल नारंगी फूल लिये
रेत में आग कहाँ होती है
जैसे नहीं होता पानी
रोहिडा भी शायद
मरीचिका है

Sunday, May 29, 2011

रेत

रेत-एक

आंधियां कितनी भी तेज हों

रेत को आँगन में

कौन रखता है

बुहार दी जायेगी

आंधी बंद होते ही



रेत-दो



रेत कितनी भी

ऊंची हो जाये

टीला ही होगी

पहाड़ नहीं



रेत-तीन



चैत से जेठ तक

घूमती है रेत

पगलायी हुई

बैठ जायेगी

आषाढ़ी आकाश की

पहली बूँद के साथ



रेत-चार



वैज्ञानिक कहते है

रेगिस्तान पाँव बढ़ा रहा है

बढ़ रहा है रेगिस्तान

धरती के साथ साथ

हमारे मन में भी

Tuesday, May 24, 2011

इन्द्रधनुष

कितना मुश्किल है
रेगिस्तान में चटख हरा रंग देख पाना
धूसर टीलों के बीच
मटियाला या कलिहाया हरा रंग ले
खेजरी और रोहिडा खड़े है वीतराग सन्यासी से

जब प्रकृति उदास,धूसर,ऊदे
रंगों में लिपटी हो
तभी मानवी जिजीविषा होती है रंग-बिरंगी
रेत के उदास रंग नहीं तोड़ पाते
आदमी की रंगीन चाहों को

वो भरता है रंग पंचरंगे साफे में
सतरंगी ओढ़नी में
या फिर गूंथ लेता है
अनगिनत रंगों का गोरबंद.
छोटे छोटे सितारों जैसे कांच
जड़ देता है बिछौने में

रंग फिर झिलमिलाते है
छोटे छोटे सितारों में हज़ार गुना हो कर
लगता है जैसे बिखर गया है सूरज
खंड खंड हो कर
झिलमिला रहे है
हजारों इन्द्रधनुष
आदमी की चाहत के

कितना ही उदास हो रेगिस्तान का रंग
आदमी का रंग कभी उदास नहीं होगा
चाहतें ऐसे ही झिलमिलायेंगी
हजारों इन्द्रधनुष सी

Sunday, May 22, 2011

मात मिली

रस्ते रस्ते बात मिली
नुक्कड़ नुक्कड़ घात मिली

चिंदी चिंदी दिन पाए है
क़तरा क़तरा रात मिली

सिला करोड़ योनियों का है
ये मानुष की जात मिली

बादल लुका-छिपी करते थे
कभी कभी बरसात मिली

चाहा एक समंदर पाना
क़तरों की औकात मिली

जीवन को जीना चाहा पर
सपनों की सौगात मिली

वक़्त जहाँ मुठ्ठी से फिसला
यादों की बारात मिली

उस चौराहे शह दे आये
इस चौराहे मात मिली

Thursday, May 19, 2011

भोलू का बेटा

आसमां बिजलियों से जो डर जायेगा
फिर ये भोलू का बेटा किधर जायेगा

नींद में करवटें जुर्म ऐलानिया
जुर्म किस ने किया किस के सर जायेगा

जो बताया सलीके में क्या खामियां
एक अहसान सर से उतर जायेगा

ज्ञान पच ना सका वो करे उलटियाँ
जैसे बू से ये गुलशन संवर जायेगा

गालियाँ, प्यालियाँ,कुछ बहस,साजिशें
गर ये सब ना मिला वो पसर जायेगा

मुंह को खोलो नहीं, कस के सर ढांप लो
है ये तूफ़ान लेकिन गुज़र जायेगा

फालतू सब हुकूमत,निजामत ,बहस
गर ये भोलू का बेटा ही मर जायेगा

Saturday, May 14, 2011

नासूर है

फ़िक्रमंदों का अज़ब दस्तूर है
ज़िक्र हो बस फिक्र का मंज़ूर है

जो कभी इक शे'र कह पाया नहीं
वो मयारी हो गया मशहूर है

जो किसी परचम तले आया नहीं
वो नहीं आदम भले मजबूर है

मोड़ औ नुक्कड़ ज़हां के देख लो
ये कंगूरा तो बहुत मगरूर है

चन्द साँसों का सिला जो ये मिला
चौखटों की शान का मशकूर है

ये कसीदे शान में किस की पढ़ें
रोशनी की हर वज़ह बेनूर है

वो बहेगा दर्द देगा बारहा
फितरतन जो बस महज़ नासूर है

Friday, May 13, 2011

शाया हो गया

जो कहा,वो,कह न पाया हो गया

शब्द का सब अर्थ जाया हो गया



आदमी अब इक अज़ब सी शै बना

आज अपना कल पराया हो गया



बाप उस दिन दो गुना ऊंचा हुआ

जब कभी बेटा सवाया हो गया



ज़िन्दगी दी और सिक्के पा लिए

सब कमाया बिन कमाया हो गया



जब दिमागों की सड़न देखी गयी

आसमां तक बजबजाया हो गया



कल नये रंगरूट सा भर्ती हुआ

चार दिन में खेला खाया हो गया



अब खुदा वो वक़्त का कहलायेगा

अब गज़ट में नाम शाया हो गया

Tuesday, May 10, 2011

बेचारों सा है

घर तो है,दीवारों सा है
मन अपना बंजारों सा है

वक़्त की फितरत जाने क्या है
दुश्मन है पर यारों सा है

तौर-तरीके जैसे भी हों
अन्दर कुछ अवतारों सा है

उस को ज्ञानी कहती दुनिया
जो बासी अखबारों सा है

एक शख्सियत लगता है जो
माटी के किरदारों सा है

जिस को रब कहते आये हैं
कुछ धुंधले आकारों सा है

किस का दम भरते हो प्यारे
हर आदम बेचारों सा है

Sunday, May 8, 2011

पुछल्ले हो गये

जब से कॉलोनी मुहल्ले हो गये
लोग सब लगभग इकल्ले हो गये

दोस्ती हम ने इबादत मान ली
बस कई इल्ज़ाम पल्ले हो गये

भोक्ता,कर्त्ता सुना भगवान है
लोग महफ़िल के निठल्ले हो गये

ज़िक्र की पोशीदगी बढ़ने लगी
बात में बातों के छल्ले हो गये

बेअदब हो चाँद फिर मंज़ूर है
अब तो सब तारे पुछल्ले हो गये

Thursday, May 5, 2011

निशाना दिखता है

इक पल जीना इक पल मरना दिखता है
मेरा गिरना और संभलना दिखता है

इक बूढ़े चेहरे को पढ़ना आये तो
हर झुर्री में एक जमाना दिखता है

जब कोई गुलशन की बातें करता है
मुझ को बस इक नया बहाना दिखता है

एक कहानी नानी की सुन जो सोता
उसे ख्वाब में एक खज़ाना दिखता है

बिस्तर की सलवट को कितना ठीक करो
जब चादर का रंग पुराना दिखता है

कल तक वो सच्चा इन्सां कहलाता था
गलियों में जो एक दीवाना दिखता है

देख फिजा में ये दहशत का साया है
शहर नहीं अब गाँव निशाना दिखता है

Wednesday, May 4, 2011

मरीचिका

रेगिस्तान में पानी बहुत गहरा होता है
धरातल पर होती है सिर्फ मरीचिका
मृग और मानुष दोनों ही
दौड़ते रहते है मरने तक
उस पानी की तलाश में जो कहीं है ही नहीं

रेत को हमेशा ही दया आती है
दोनों की ऐसी अज्ञानी और भोली मौत पर
आँखों में रड़क कर
रेत देती रहती है प्रमाण
पानी के न होने का

नहीं चेतते पर मानुष या मृग
पानी की लुभावनी सम्मोहक प्रतिछवि
खींचती है लगातार
नहीं छोड़ पाते इस सम्मोहन को
मानुष या मृग दोनों ही

पानी जीवन है
पानी अर्थपूर्ण है
पानी सम्मोहन है
पानी आकर्षण है
किन्तु पानी की प्रतिछवि साक्षात् मौत है
ये नहीं समझ पाता आदमी

आभास को पानी समझ कर
रेगिस्तान में पानी के पीछे दौड़ता आदमी
ऐसे ही छला जाता है बार बार
जीवन की चाह सिर्फ मौत देती है
मरीचिका हंसती है
रेत विमूढ़ देखती है
कहती है
तू ढूँढता रहा पानी
ये जानते हुए भी
की रेगिस्तान में सच केवल रेत है
पानी हमेशा ही मरीचिका है

Tuesday, May 3, 2011

प्यार रेत से

शायद मैं कभी भी न लिख पाऊँ कोई प्रेम कविता
क्यों कि जितनी शिद्दत से महसूस किया जाता है प्रेम
उस से अधिक शिद्दत से महसूस करता हूँ मैं रेत को
मेरे इस दिव्य रिश्ते को मैं नहीं दे सकता
प्रेम कविताओं में प्रयुक्त
जूठे शब्द, प्रतीक और उपमाएं

रेत के मूर्त्त और अमूर्त्त चित्र
उकेरे हुए है मेरे अन्दर
मैंने पल पल जिया है
इन लुभावने चित्रों को
मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा है ये

मन के बहुत अन्दर तक पैठे है ये चित्र
मैं जानता हूँ
कोई सर्जन भी शरीर के अंग भले ही काट पीट ले
मन को काटना उसे नहीं आता

रेत कि थपकियाँ
रेत का सूना संगीत
रेत के टीले से लुढ़कने कि मस्ती
टीला दर टीला रेत की बस्ती
खोई खोई सी रेतीली शाम
जागी जागी सी नशीली सुबह
सब जिंदा है मुझ में

रेत के सौन्दर्य को जिया है जिस ने
लौट लौट आता है वो
लौटता हूँ मैं भी
रेत से प्यार जताने को
मैं भी रेत ही हूँ बताने को

Monday, May 2, 2011

मैं भी प्यार करता हूँ

क्यों गढ़े गये है बड़े बड़े शब्द
मेरे छोटे छोटे सुखों के लिये
शब्द वीरों की पूरी सेना
लड़ रही है मेरी रोटी के लिये

मैं तो रोटी का मतलब
इतना ही जानता हूँ कि माँ बना देती है
गरम गरम रोटियां और मैं खा लेता हूँ
मुझे नहीं पता रोटी के लिये
युद्ध होता है या गीत गाये जाते है
मेरे हिसाब से तो पसीना बहता है

कोई मेरे लिये लाठियां भांज रहा है
कोई बहुत दयालु हो कर आंसू बहा रहा है
पसीना कोई नहीं बहाता

मुझे हर बार बना दिया जाता है
अजायबघर में रखा कोई बुत
या चौराहे पर टंगा कोई इश्तिहार
झंडों,नारों,बैनरों,पोस्टरों के नीचे
मेरी पत्नी के लिये लायी चूड़ियाँ दब गयी है
रोटी के झंडाबरदारों को क्या बताऊँ
भाई बीवी से प्यार करना तो मुझे आता ही है

मैं पोस्टर नहीं हूँ
आदमी हूँ ,चाहता हूँ रोटी
थोड़े प्यार के साथ

Sunday, May 1, 2011

कानूनों का जंगल है

मेरे खातिर कानूनों का जंगल है
मेरे खातिर ये आलीशां दंगल है

वो बबूल का पेड़ दिखा कर कहते है
तेरे हक में तो प्यारे ये संदल है

मेरा सूरज ठंडा सर्द हवाएं है
मेरे हक में सिर्फ अधफटा कंबल है

जिनको चिंता करनी वो करते जाये
मैं क्या जानूं किस में मेरा मंगल है

वही टोटके बतलाते है जीवन के
जिनके दर्शन में भी एक अमंगल है

हाथ पकड़ते हाथ छोड़ते उम्र हुई
मेरा जीवट ही अब मेरा संबल है

दरबानों अब ये समझो ताकीद तुम्हे
मेरे हाथों में ताला है संकल है

Saturday, April 30, 2011

जादू टोना जी

सच को कैसे ढोना जी
चुभता कोना कोना जी

खाना-पीना,जगना-सोना
ये होना क्या होना जी

धुंआ,धुंआ अहसासों पलना
कतरा कतरा खोना जी

समय समय पर आना जाना
किस का रोना धोना जी

आसमान में इक उड़ान हो
क्या पाना क्या खोना जी

जीना नागफणी का जंगल
सपनों को क्या बोना जी

जागें तो जीवन पर सोचें
सोना है तो सोना जी

आँख मूँद कर देखेंगे तो
जीवन सपन सलोना जी

एक मदारी सभी जमूरे
जीवन जादू-टोना जी

Thursday, April 28, 2011

दोस्ती मिलती नहीं

दोस्तों की यूँ कमी खलती नहीं
दोस्ती लेकिन कहीं मिलती नहीं

मैं बड़ा या तू बड़ा आ नाप लें
दोस्ती में ये अदा चलती नहीं

बेसबब बैठक औ बहसें शाम की
शाम वैसी यार अब ढलती नहीं

एक हो पर दर हकीक़त यार हो
ज़िन्दगी फिर बोझ सी लगती नहीं

छीन कर खा जाएँ लड्डू गोंद का
हूक सी दिल में कहीं उठती नहीं

रात भर झगड़े, सुबह ढूँढा किये
बेकली अब इस क़दर पलती नहीं

मैं तेरा कर दूँ,तू मेरा काम कर
ये ज़रुरत दोस्ती बनती नहीं

Tuesday, April 26, 2011

पाली रेत

तुम ने कभी संभाली रेत
हम ने तो है पाली रेत

तन पर क्या रखना इस का
मन में कहीं छिपा ली रेत

होली रोज मनाती है
कभी कभी दीवाली रेत

सूरज संग अंगारा है
चंदा संग मतवाली रेत

जाने कहाँ छुपी बैठी
निकली नहीं निकाली रेत

कभी आसमां छू आती
कभी निठल्ली ठाली रेत

छू कर,जी कर,निरख,परख
अपनी देखीभाली रेत

Sunday, April 24, 2011

रेत आषाढ़ में

आषाढ़ में या सावन में
जब भी उठेगी तीतरपंखी बादली
चलेगी पुरवाई
थकने लगी होगी पगलाई डोलती रेत
तब
अनंत के आशीष सी
माँ के दुलार सी
कुंआरे प्यार सी
पड़ेगी पहली बूँद
रेत पी जायेगी उसे चुपचाप
बिना किसी को बताये
बूँद कोई मोती बन जायेगी

उठेगी दिव्य गंध
कपूर या लोबान सी
महक उठेगा रेगिस्तान
श्रम-क्लांत युवती के सद्य स्नात शरीर सा
रेत की खुशबू फ़ैल जायेगी दिगदिगंत

यदि बेवफा रहा बादल
तो रेत का दुःख दिखेगा धरती के गाल पर
अधबहे परनाले के रूप में
बादल हुआ अगर पागल प्रेमी
तो हरख हरख गायेगी रेत
पगलायी धरती उगा देगी कुछ भी
जगह जगह,यहाँ वहां
हरा, गुलाबी,नीला,पीला
काम का,बिना काम का
कंटीला,मखमली,सजीला या ज़हरीला भी
धूसर रेत पर चलेंगे हल
हरी हो जायेगी धरती की कोख

कुछ कीजिये

वक़्त बेआवाज़ है,कुछ कीजिये
ये धरा मोहताज़ है,कुछ कीजिये

लग रही मासूम सी जो सेमिनार
एक साज़िश,राज़ है,कुछ कीजिये

अब तरक्की मांगती है नर-बलि
ये गलत अंदाज़ है,कुछ कीजिये

हो गयी धरती की बेनूरी बहुत
आसमां नाराज़ है,कुछ कीजिये

ज़िन्दगी को जो तिजारत मानते
वक़्त के सरताज है,कुछ कीजिये

बस शिकंजों में कसा है आदमी
क़ैद में परवाज़ है,कुछ कीजिये

वक़्त मरहम है सुना हम ने बहुत
वक़्त ही नासाज़ है,कुछ कीजिये

Wednesday, April 20, 2011

अनाम होता है

बज़्म में ज़िक्र आम होता है
आदमी क्यों गुलाम होता है

जो हों पूरी तो हसरतें क्या है
यूँ ही जीवन तमाम होता है

तफसरा ज़िन्दगी पे देते हैं
जब भी हाथों में जाम होता है

वक़्त धोबी है पूरे आलम का
आदतन बेलगाम धोता है

ज़िन्दगी हार के वो कहते है
जीत का ये इनाम होता है

मुफलिसी के तमाम किस्से है
एक फक्कड़ निजाम होता है

जिस को हासिल हुआ उसे पूछो
एक किस्सा अनाम होता है

Friday, April 15, 2011

खता रही ना

अपना पीना भी क्या पीना
जीना मरना,मरना जीना

उन को प्राणायाम लगा है
हांफा जब भी अपना सीना

कितने फ़र्ज़,क़र्ज़ कितने थे
रहा सफ़र में सदा सफीना

एक अंगूठी बन जायेगा
कहाँ अकेला रहा नगीना

हर कश्ती को पार लगाये
ऐसी कोई हवा बही ना

बातें भी शमशीरें होती
हुई कभी भी सुना सुनी ना

रिश्ते क्यों बेमानी लगते
अपनी कोई खता रही ना

Wednesday, April 13, 2011

अहसान है

हादिसों का चार सू इमकान है
लोग महफ़िल के मगर अनजान है

तोड़ देते आदमी की रूह को
ये ग़ज़ब के सिरफिरे अरमान है

क्या तआर्रुफ़ पूछते है बारहा
आप जैसे हूबहू इंसान है

उन फरिश्तों की अलग तासीर थी
इन फरिश्तों का अलग ईमान है

चाँद से जब से हुई है दोस्ती
चाँदनी मेरे यहाँ मेहमान है

खासियत तो देखिये पापोश की
हर क़दम की रूह की पहचान है

राह भूला भी नहीं,भटका नहीं
बस मेरा खुद पर यही अहसान है

Monday, April 11, 2011

भाया नहीं

गो कहन में इल्म का साया नहीं
राग फिर भी बेसुरा गाया नहीं

छान मारे कारवां औ रहगुजर
रहबरों में कुछ हुनर पाया नहीं

एक पूँजी सी मिली थी ज़िन्दगी
एक लम्हा भी किया जाया नहीं

वो बुलंदी इसलिये ना पा सका
खाक होने का शऊर आया नहीं

सब मुखौटा हों हमें मंज़ूर है
तू मुखौटा हो ये कुछ भाया नहीं

हम जले, जलते रहे है बारहा
क्यूँ अभी माहौल गरमाया नहीं

Saturday, April 9, 2011

सर जायेगा

नफरतों से जब कोई भर जायेगा
काम कोई दहशती कर जायेगा

इक गली,इक बाग़ कोई छोड़ दो
एक बच्चा खेल कर घर जायेगा

बागबाँ को क्यों खबर होती नहीं
फूल इक अहसास है मर जायेगा

रेत के सहरा को कब मालूम है
एक बादल तर-ब-तर कर जायेगा

अब यक़ीनन राह भूलेगा कोई
जब कोई यूँ कौम को भरमायेगा

काश कोई इन धमाकों को कहे
नींद में बच्चा कोई डर जायेगा

हुक्मरां की चाल तो तफरीह है
फिर किसी प्यादे का ही सर जायेगा

Friday, April 8, 2011

रेत राग

कोसों तक
जब सिर्फ सन्नाटा गूंजता है
तब बजाता है आदमी
बांसुरी,अळगोजा
मोरचंग,खड़ताल
रावणहत्था या सारंगी
बहुत अकेला हुआ आदमी
तब गाता है
रेत राग

Thursday, April 7, 2011

कैसी होती है रेत

कैसी होती है रेत

सिहर उठता हूँ मैं
यह सोच कर
अगर किसी दिन मेरी पोती ने पूछ लिया

क्या होता है ?
फोग,खींप,बुई
आक ,सत्यानाशी,जंगल जलेबी
कागारोटी,इमली,निम्बोली,ब़रबंटा
सेवण,धामन,कांस,सरकंडा

क्या होता है ?
कागडोड,कमेड़ी
सियार,लोमड़ी
मोर,कबूतर,कौव्वा,गिद्ध
गोह,गोयरा,सांप,सलेटिया
बघेरा,तेंदुआ,नाहर

क्या होता है ?

आँगन,सेहन,चौबारा
तिबारा,टोडी,छज्जा
मालिया,दुछत्ती,गुभारिया

अगर उस ने पूछ ही लिया किसी दिन
क्या होती है गाय
कैसी होती है रेत
तब मेरे पास शायद न हो इन के फोटो भी

Wednesday, April 6, 2011

चांदनी रात में रेगिस्तान

चांदनी रात में
रेगिस्तान खोलता है अपने राज

उन्नत वक्ष से टीले
एक के बाद एक
भिन्न रूपाकारों में
मांसल गोलाइयों से
अनावृत पसरे है
रति-श्रम से थके
या बेसुध सुरापान कर
या अम्मल डकार कर
या आत्म केन्द्रित रूप गर्विता से

सम्मोहक गहराइयाँ
विवश करती है
मुंह छुपा इस मांसल सौन्दर्य को
छु कर महसूस करने को

ये अप्रतिम, अनंत
अनगढ़,आदिम सौन्दर्य-राशि
फैली है मूक आमंत्रण सी
सभी दिशाओं में
आकंठ उब-डूब करती हुई
चाँद भी देखता है
ठगा सा

वैसे ही जैसे
कभी रह गया होगा
ठगा सा
गौतम-पत्नी अहिल्या को देख कर
शापित अहिल्या की रूप-राशि का कोई हिस्सा
प्रस्तर न बन कर
बन गया था यह रेत-राशि
चाँद आज भी
सम्मोहित देखता रहता है
जड़,निःशब्द
गौतम के शाप के बावजूद

इस अप्रतिम,अनंत
अनगढ़, आदिम सौन्दर्य-राशि के
मखमली स्पर्श को
पी लो,जी लो
या
रोम रोम में
महसूस कर लो
सिहरन सा
या अपना लो
इस जड़ निःशब्द
चाँद की साक्षी में

Thursday, March 31, 2011

मूर्ख दिवस पर

हे दुनिया के
परम बुद्धिमान लोगों
तुम्हारे सारे बहस-मुबाहसों
चिंताओं,सरोकारों
प्रतिबधताओं,पक्षधर्ताओं
का केंद्र मैं ही हूँ
किन्तु
मैं तो मूर्ख ही हूँ अभी

कितने पन्ने रंग डाले तुम ने
लाल,नारंगी स्याहियों से
फिर क्यों होता है
स्याहियों का रंग
तुम्हारे चेहरों पर नज़र आता है

कोर्पोरेट योद्धाओं से तुम
लड़ रहे होते हो
अपने अपने ब्रांड के लिये

कितने बड़े हो जाते है
तुम्हारी नाकों के दायरे
हवा में चला घूँसा भी
लगता है तुम्हारी नाक पे

हे परम बुद्धिमानों
एक इच्छा है इस मूर्ख की
तुम्हारी नाक में तिनका कर
तुम्हारी छींक की
आकाशी गर्जना सुनने की
क्या तुम मुझे
इस मूर्खता की अनुमति दोगे
मैं जानता हूँ
तुम हंस रहे हो
मेरी मूर्खता पर
मेरे भोलेपन पर
लाड आता है तुम्हे
तुम्हारी प्रतिबधता की प्रत्यंचा
और तन जाती है

परम बुद्धिमानों
मैं वज्रमूर्ख खुश हूँ
अपनी मूर्खता में
कालिदास और लाओत्से की तरह

Tuesday, March 29, 2011

बेटी जवाँ हुई है

ना सांस भर के देख
स्वीकार कर के देख

बेटी जवाँ हुई है
ना आँख भर के देख

तेरा गुरुर है ये
बस आँख भर के देख

तारीख को गढ़ेगी
विश्वास कर के देख

लानत मलामतों को
इंकार कर के देख

मजबूत है ये गुडिया
ना हार कर के देख

बेलौस तरबियत का
इज़हार कर के देख

इस पर भी नेमतें कुछ
बलिहार कर के देख

करता,जता सका ना
वो प्यार कर के देख

Sunday, March 27, 2011

रेत

रेत- एक

बहुत तेज आंधी भी
समतल नहीं कर पायी
रेगिस्तान को
सिर्फ
जगह बदल कर
खड़े हो जाते है टीले
रेत- दो

टीलों पर कुछ नहीं उगता
सिर्फ
ढलान पर होती है
कुछ झाड़ियाँ

रेत- तीन

मखमली लाल तीज भी
होगी कभी इस टीले पर
जब वो तर होगा
पहली बरसात में
किन्तु
काला भूण्ड सदैव दिखता है
मल लुढ़काता हुआ
रेत- चार
रेत सिर्फ रेत है
समझ आती है
जब
हो जाओ रेत से

Tuesday, March 22, 2011

झमेले हो गए

आसमां के हाथ मैले हो गये
ये महल कैसे तबेले हो गये

जो खनकते थे कभी कलदार से
अब सरे बाज़ार धेले हो गये

घूमती थी बग्घियाँ किस शान से
आजकल सड़कों पे ठेले हो गये

इस शहर में कौन बोलेगा भला
लोग ख़ामोशी के चेले हो गये

देखिये तो छक्के पंजे जब मिले
कल के नहले आज दहले हो गये

अपनी खुद्दारी नज़रिया औ हुकूक
जान को लाखों झमेले हो गये

Friday, March 18, 2011

होली है

होली की मुबारकबाद के साथ आप के लिए चन्द दोहे

सहजन फूला साजना,महुआ हुआ कलाल
मौसम दारु बेचता,हाल हुआ बेहाल

गेंहू गाभिन गाय सा,चना खनकते दाम
महुआ मादक हो गया,बौराया है आम

गौरी है कचनार सी,नैनों भरा उजास
पिया बसंती हो गए,आया है मधुमास

फगुनाया मौसम हुआ,अलसाया सा गात
चौराहे होने लगी तेरी मेरी बात

सतरंगी है ओढ़नी,पचरंगी है पाग
जीवन चाहे रेत हो मनवा खेले फाग

हवा सीटियाँ मारती,मद बरसे आकाश
रस्ते चलते छेड़ता,आवारा मधुमास

मेघदूत तो है नहीं,कुरजां ले सन्देश
जिस के रंग राची फिरूं वो क्यों है परदेश

फागुन छोटा देवरा,फिर फिर छेड़े आय
मनवा बैरी हो गया,तन में अगन लगाय

भाभी बौरायी फिरे,साली भी दे ताल
मीठी मीठी छेद से,मनवा हुआ निहाल

इस फागुन की रात में चांद रहा भरमाय
चढ़ा करेला नीम पे,करिये कौन उपाय

चान्दी सी है चांदनी,सोने सी है रेत
अळगोजा बरसा रहा हेत,हेत और हेत

फागुन बाराती हुआ,तन थिरके सुर ताल
आँख निमंत्रण पत्र सी,मन जैसे वर माल

मनवा खिला पलाश है,तन टेसू का फूल
पगलाये माहौल में,कर भूलों पर भूल

Thursday, March 17, 2011

मौसम है आता जाता है

इस का कब पक्का नाता है
मौसम है,आता, जाता है

सपनों को समझाऊँ कैसे
जब जी चाहे तू आता है

कोई नदी दीवानी होगी
तभी समंदर अपनाता है

सन्नाटा चाहे दिखता हो
एक बवंडर गहराता है

बच्चा जब सीधा बूढ़ा हो
खून रगों में जम जाता है

जिन्हें चलाना आता,उन का
खोटा सिक्का चल जाता है

लाख अंधेरों की साजिश हो
अपना सूरज से नाता है

Friday, March 11, 2011

रिश्ते सूखे फूल गुलाबों के

रिश्ते सूखे फूल गुलाबों के
भूले जैसे हर्फ़ किताबों के

ये मिलना भी कोई मिलना है
इस से अच्छे दौर हिजाबों के

सीधी सच्ची बातें कौन सुने
शैदाई है लोग अजाबों के

दौर फकीरी का भी हो जाये
कब तक देखें तौर रुआबों के

ना छिपता,ना पूरा दिखता है
पीछे जाने कौन नकाबों के

कई सवारों ने ठोकर खाई
जाने किस ने राज रकाबों के

जारी देखो अब भी बेगारी
गुजरे चाहे दौर नवाबों के

Thursday, March 10, 2011

यूँ हुआ क्यूँ कर

ज़िक्र बदरंग हर हुआ क्यूँ कर
हर ख़ुशी के लिए दुआ क्यूँ कर

नाव कागज़ की खूब तैरे है
आदमी इस तरह हुआ क्यूँ कर

आज तक धडकनों में तूफां हैं
आप ने इस क़दर छुआ क्यूँ कर

लोग चुपचाप क़त्ल देखे है
कौन पूछे कि ये हुआ क्यूँ कर

या कि राजा है या कि रंक यहाँ
ज़िन्दगी इस क़दर जुआ क्यूँ कर

मैंने रस्ते बनाये आप यहाँ
आप मेरे हैं रहनुमा क्यूँ कर

यूँ न होता तो यूँ नहीं होता
यूँ न हो कर ये यूँ हुआ क्यूँ कर

Monday, March 7, 2011

क्या जाने

क्या जाने

अब मेरे ज़ब्र के है क्या माने
तू कहे क्या,करे ,ये क्या जाने

आँख को मूंदना अदा गोया
पाँव छाती पे,कब हो,क्या जाने

फैलना इक नशा शहर का है
गाँव कब खो गया ये क्या जाने

मंद कंदील तुम ने बाले तो
रोशनी हो न हो ये क्या जाने

हम मुसाफिर है तो चलेंगे ही
राहे मंजिल है क्या,ये क्या जाने

कलम गुस्ताख कुछ भी कहती है
कलम हो सर,ये कब,ये क्या जाने

Friday, March 4, 2011

एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल

रिरिया रहे है लोग
घिघिया रहे है लोग

उद्घोष होना चाहिए
मिमिया रहे है लोग

बेदर्द क़त्ल है ये
बतिया रहे है लोग

है वक़्त पूनियों सा
कतिया रहे है लोग

संवेदना मरी है
खिसिया रहे है लोग

धोखे की टट्टियों को
पतिया रहे है लोग

कुर्सी पे बैठे बैठे
गठिया रहे है लोग

आदम नहीं गधे सा
लतिया रहे है लोग

मौके भुना रहे है
हथिया रहे है लोग

Saturday, February 26, 2011

एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल

ख़त आता था ख़त जाता था
बहुत अनकही कह जाता था

बूढ़े बरगद की छाया में
पूरा कुनबा रह जाता था

झगडा मनमुटाव ताने सब
इक आंसू में बह जाता था

कहे सुने को कौन पालता
जो कहना हो कह जाता था

तन की मन की सब बीमारी
माँ का आँचल सह जाता था

कई दिनों का बोल अबोला
मुस्काते ही ढह जाता था

लाख अभावों के जीवन में
भाव सदा ही बच जाता था

Friday, February 25, 2011

एक ग़ज़ल

अब दगों की ही रवायत हो गई
ज़िन्दगी गोया तवायफ हो गई

अब वफ़ा ही शूल सी चुभने लगी
आप की जब से इनायत हो गई

है मुहब्बत कह दिया चौराहे पर
जाने किस किस से अदावत हो गई

जो हुए गाफिल तो भुगतेंगे जनाब
आप को कैसे शिकायत हो गई

यूँ किताबों में लिखे अधिकार है
मांग बैठे,बस क़यामत हो गई

तान के मुक्का यूँ ही लहरा दिया
लीजिये अपनी बगावत हो गई

एक ग़ज़ल

अब दगों की ही रवायत हो गई
ज़िन्दगी गोया तवायफ हो गई

अब वफ़ा ही शूल सी चुभने लगी
आप की जब से इनायत हो गई

है मुहब्बत कह दिया चौराहे पर
जाने किस किस से अदावत हो गई

जो हुए गाफिल तो भुगतेंगे जनाब
आप को कैसे शिकायत हो गई

यूँ किताबों में लिखे अधिकार है
मांग बैठे,बस क़यामत हो गई

तान के मुक्का यूँ ही लहरा दिया
लीजिये अपनी बगावत हो गई

Tuesday, February 22, 2011

एक ग़ज़ल

खोट के सिक्के चलाये जा रहे है
लोग बन्दर से नचाये जा रहे है

आसमां में सूर्य शायद मर गया है
मोमबत्ती को जलाये जा रहे है

देखिये तांडव यहाँ पर हो रहा है
रामधुन क्यों गुनगुनाये जा रहे है

जो पिघल कर मोम से बहने लगे है
लोग वो काबिल बताये जा रहे है

आप को वो स्वप्नजीवी मानते है
स्वप्न अब रंगीन लाये जा रहे है

देखते है आसमां कैसे दिखेगा
शामियाने और लाये जा रहे है

Sunday, February 20, 2011

एक ग़ज़ल

हिल गए आधार है शायद जमीं के
ध्रुव तलक लगता नहीं काबिल यकीं के

खुश्क धरती का कलेजा फट गया है
है नहीं आसार अब बाकी नमी के

अब मकां न है नजर आती दीवारें
लोग रहते है यहाँ लगते कहीं के

रोज़ खाली हाथ लौटा उस गली से
इस कदर झूठे इशारे महज़बीं के

वक़्त गन्दी नालियों सा बह रहा है
आदमी-दर-आदमी साये गमी के

रोज़ काले बादलों की भीड़ लगती
आसमां में दायरे लेकिन कमी के

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Saturday, February 19, 2011

दो छोटी कवितायेँ

एक
और तभी होता है ये आभास
गिन गिन कर लेते है
एक एक
श्वांस
तोड़ कर पिंजड़ा
उड़ता है एक पंछी
और छाया मंडराती है
यहीं आसपास

दो

एक कोई
माघ की रात में गला
जेठ की घाम में जला
उसने हर बार
घर दिया
उसे
खलिहान ही मिला

एक गीत

एक गीत

कीचड दे बौछार
ठंडी ठंडी पवन नहीं है
नर्म गर्म वो बदन नहीं है
उजड़े नीद निहारे बैठी
- एक अकेली डार
गंगा ही जब उलटी बहती
नजर एक कमरे तक रहती
जाने कैसे गणित कहे है
-दो और दो है चार
हर पगडण्डी सड़क बनी है
अपनी ही जब छांह घनी है
तब क्यों न वो छुप कर बैठे
- जो कहलाता प्यार

Friday, February 18, 2011

एक ग़ज़ल

कब गुलाब की होगी धरती
सरकंडों की भोगी धरती

अब कोई उम्मीद नहीं है
शस्य-श्यामला होगी धरती

आदमजात कहो क्या कम है
और भक्ष्य क्या लोगी धरती

बच्चे कच्चे भूख मरे है
बनती कैसे जोगी धरती

लाखों वैध हकीम हुए है
पर रोगी की रोगी धरती

Wednesday, February 16, 2011

कुछ दोहे राजस्थानी माटी के

आंधी थी जो कर गयी,आँगन आँगन रेत
आई थी तो जायेगी,कहाँ रेत को हेत

रात चांदनी दूर तक टीलों का संसार
अळगोजे*की तान में बिखरा केवल प्यार

हडकम्पी जाड़ा पड़े,चाहे बरसे आग
सहज सहेजे मानखा माने सब को भाग

सतरंगी है ओढ़नी,पचरंगी है पाग
जीवन चाहे रेत हो मनवा खेले फाग

सुबह हुई कुछ और था,सांझ हुई कुछ और
आदम की नीयत हुआ,इन टीलों का तौर

अँधेरे की चीख से

एक ग़ज़ल

धुंधले हैअक्स सारे,कुछ तो दिखाइये
इस बोदे आईने को थोडा हटाइये

सावन के आप अंधे,दीखेगा ही हरा
रुख दूसरे के जानिब चेहरा घुमाइये

अरायजनवीस लाखों जीते तो मिल गये
अब हार की सनद ये किस से लिखाइये

कैसे करेंगे अब हम खेती गुलाब की
गमलों की है रवायत,कैक्टस उगाइये

खाली हुई चौपाल और उजड़ा हुआ अलाव
हुक्का है चीज़ कौमी,सिगरेट जलाइये

मेरे संग्रह अँधेरे की चीख से,संग्रह से उद्धृत सभी रचनाएँ
कॉपी राईट है,अनाधिकृत प्रयोग न करें.
कुछ मित्रों द्वारा दी गयी सूचना के कारण लिखना मजबूरी हो गया है

Friday, February 11, 2011

ek gazal

रोटियों से यहाँ भली गोली
इसलिये है नहीं टली गोली

ग़ज़ब कि आप को लगी कैसे
ये हवाओं में थी चली गोली

अमन औ चैन बरक़रार रहा
आप को किसलिये खली गोली

आजकल वादियों में गूंजे है
बूट, खाली गली , गोली

आपका हक बड़ा जो हक में है
सिर्फ बन्दूक क़ी नली गोली

गंध बारूद क़ी है सांसों में
इस क़दर मांस में ढली गोली

Wednesday, February 2, 2011

धूप दिसम्बर में

बिखरी है धूप
नरम रुई के गाले सी
नवजात खरगोश सी
कूदती फिरती है
आंगन में बच्चियों सी
खेलती है आइस पाइस
चढ़ती उतरती है सीढियाँ
करती है कानाफूसी
बतियाती है
कभी कभी चिढाती है
ठिठोली करती है
खिलंदड़ी धूप
कभी कभी देर से आती है
नकचढ़ी धूप
धूप आओ खेलेंगे
और खेल खेल में
तुम दीवार के उस पार भी झांकना

Sunday, January 30, 2011

खेल खेल में

एक खेल तुम खेलो
एक खेल मैं
तुम्हारे खेल में
शेयर मार्केट की बास्केट बाल
के साथ
रक्तदाब का पैमाना
ऊपर नीचे होगा
मेरे खेल में
जीने की चाहत
खेत में गेंहू के
नवांकुर सी फूटेगी
ऊंची नीची धरती पर
मैं भी खेलूँगा तुम्हारी तरह
रक्तदाब ऊपर नीचे होने का खेल
तुम्हारे खेल का पैमाना बहुत बड़ा है
नदी, पेड़, जंगल
गाँव,देश,धरती
जाति,धर्म,आदमी
किसी का भी
गला घोंट सकते हो
मेरे खेल में चींटी भी
जीवन का अधिकार रखती है
तुम अपनी शर्तों पर खेलते हो
खिलाडी भी तुम
रेफरी भी तुम
लेकिन शर्तों पर खेल नहीं
युद्ध होते है
खेलना है तो मेरी तरह आओ
शर्तहीन
जीत और हार के डर से दूर
खेल को ज़िन्दगी बना कर नहीं
ज़िन्दगी को खेल बना कर
तुम अहसास में व्यवसाय ढूंढते हो
और मैं व्यवसाय में भी अहसास
तुम रिश्तों को भुनाते हो
मैं रिश्तों को जीता हूँ
तुम खेल को रंग देते हो
मैं रंगों से खेलता हूँ
प्यारे
खेल में खेल नहीं
खेल को खेल सा खेलो
वर्ना खेल के खेल को झेलो

Saturday, January 29, 2011

दोहे सावन के

कुछ दोहे सावन के

बादल बरसा टूट कर,नेह भरा अनुबंध
हुलस हुलस नदिया बही,टूट गए तटबंध

बूँद बूँद बरसा कभी,कभी मूसलाधार
आवारा सावन करे,मनमौजी व्यवहार

फिर से इक दिन आयेगा,फिर से होगी रात
फिर फिर सावन आयेगा,फिर होगी बरसात

ये सावन है हाथ में,पूरे कर सब चाव
क्या जाने कितना चले,ये कागज़ की नाव

बिजली कडकी जोर से,घिरी घटा घनघोर
दबे पाँव बाहर हुआ,मेरे मन का चोर

ये सावन है सोलवां,कर सोलह श्रृंगार
ये नदिया बरसात की,बहनी है दिन चार

Tuesday, January 18, 2011

चिडिया से

चिड़िया तुम चहचहाइ
पौ फटने पर
तुम्हारे चहचहाने पर ही है
दारोमदार पौ फटने का.

अँधेरे को फाड़ कर निकलता
सिन्दूरी सूरज का गोला
चमत्कार है तुम्हारी ही आस्था का
तुम्हारी ही आस्था ने बिखेरे है
जीवन में रंग

पेड़ों को पराग
गेंहूँ को बाली
आदमी को भरा धान का कटोरा
मिला है तुम्हारे ही गीतों से

जानता हूँ आदमी आजकल
धान का कटोरा नहीं
बन्दूक की गोली लिये
ढूँढता है तुम्हे
पर चिडिया तुम जिन्दा रहोगी
चाहे कबूतर बन कर
चाहे फाख्ता

चहचहाओगी नन्हे बच्चों के लिये
जो अपनी तुतलाती बोली में
तुम से स्वर मिलायेंगे
गोलियां और अंधकार दोनों ही है

लेकिन पौ फटने का दारोमदार
तुम पर ही है
ओ चिड़िया
चहचहाओ
फूल के लिये
नन्हे बच्चों के लिये
गेंहूँ और जौ की बालियों के लिये

उस सब के लिये
जो देता है जिंदगी को अर्थ
जो देता है जिंदगी को रंग

उस सिन्दूरी नन्हे सूरज के लिये
जो चाहो तो हाथों में भर लो
पर जो कारण है पौ फटने का
चहचहाओ उस नन्हे सूरज के लिये

Friday, January 14, 2011

आसमान में पतंग

उड़ती है पतंग आसमान में
रंग बिरंगी
अलग अलग अंदाज की
अलग अलग रूपाकारों में

कोई नीची,कोई ऊंची
कोई खिंचती हुई
कोई खींचती हुई

कोई ठुमकती हुई अनाड़ी हाथों में
कोई नाचती हुई
उस्ताद पतंगबाज की ताल पर

कोई छु रही निरंतर ऊंचाइया
कोई सुन रही है
वो का ////////////////// टा//////////////

पतंगे घूमती है आसमान में
शाम तक उछल कूद कर
थक जायेगी पतंग
आसमान वैसा ही रहेगा
समय के पर भी है एक सूरज
जो आतुर है
तुम्हारे बुलावे का
पुकारो कभी उसे
वैसे ही
जैसे पुकारता है
बच्चा मां को
सौंप दो राशि राशि खुद को
देखो
सूरज बिखरता है खील खील
मन आंगन को सराबोर करता हुआ
हजार हजार रोशनियों का चमत्कार
आह्लाद
और आनंद एक साथ
बोले कौन
बोले कैसे
ये होता है तो बस होता है
बस फिर सूरज ही सूरज होता है
नहीं होता कोई और
न मैं,न तू,न आंगन
कुछ नहीं बचता जब
तभी होता है सूरज खील खील