Tuesday, May 10, 2011

बेचारों सा है

घर तो है,दीवारों सा है
मन अपना बंजारों सा है

वक़्त की फितरत जाने क्या है
दुश्मन है पर यारों सा है

तौर-तरीके जैसे भी हों
अन्दर कुछ अवतारों सा है

उस को ज्ञानी कहती दुनिया
जो बासी अखबारों सा है

एक शख्सियत लगता है जो
माटी के किरदारों सा है

जिस को रब कहते आये हैं
कुछ धुंधले आकारों सा है

किस का दम भरते हो प्यारे
हर आदम बेचारों सा है

1 comment:

Giriraj agrawal said...

अश्विनी जी, बहुत ही सुन्दर लिखा है। आपकी रचनाएं बहुत ही बेहतरीन होती हैं। आप बधाई के पात्र हैं।