Thursday, March 31, 2011

मूर्ख दिवस पर

हे दुनिया के
परम बुद्धिमान लोगों
तुम्हारे सारे बहस-मुबाहसों
चिंताओं,सरोकारों
प्रतिबधताओं,पक्षधर्ताओं
का केंद्र मैं ही हूँ
किन्तु
मैं तो मूर्ख ही हूँ अभी

कितने पन्ने रंग डाले तुम ने
लाल,नारंगी स्याहियों से
फिर क्यों होता है
स्याहियों का रंग
तुम्हारे चेहरों पर नज़र आता है

कोर्पोरेट योद्धाओं से तुम
लड़ रहे होते हो
अपने अपने ब्रांड के लिये

कितने बड़े हो जाते है
तुम्हारी नाकों के दायरे
हवा में चला घूँसा भी
लगता है तुम्हारी नाक पे

हे परम बुद्धिमानों
एक इच्छा है इस मूर्ख की
तुम्हारी नाक में तिनका कर
तुम्हारी छींक की
आकाशी गर्जना सुनने की
क्या तुम मुझे
इस मूर्खता की अनुमति दोगे
मैं जानता हूँ
तुम हंस रहे हो
मेरी मूर्खता पर
मेरे भोलेपन पर
लाड आता है तुम्हे
तुम्हारी प्रतिबधता की प्रत्यंचा
और तन जाती है

परम बुद्धिमानों
मैं वज्रमूर्ख खुश हूँ
अपनी मूर्खता में
कालिदास और लाओत्से की तरह

Tuesday, March 29, 2011

बेटी जवाँ हुई है

ना सांस भर के देख
स्वीकार कर के देख

बेटी जवाँ हुई है
ना आँख भर के देख

तेरा गुरुर है ये
बस आँख भर के देख

तारीख को गढ़ेगी
विश्वास कर के देख

लानत मलामतों को
इंकार कर के देख

मजबूत है ये गुडिया
ना हार कर के देख

बेलौस तरबियत का
इज़हार कर के देख

इस पर भी नेमतें कुछ
बलिहार कर के देख

करता,जता सका ना
वो प्यार कर के देख

Sunday, March 27, 2011

रेत

रेत- एक

बहुत तेज आंधी भी
समतल नहीं कर पायी
रेगिस्तान को
सिर्फ
जगह बदल कर
खड़े हो जाते है टीले
रेत- दो

टीलों पर कुछ नहीं उगता
सिर्फ
ढलान पर होती है
कुछ झाड़ियाँ

रेत- तीन

मखमली लाल तीज भी
होगी कभी इस टीले पर
जब वो तर होगा
पहली बरसात में
किन्तु
काला भूण्ड सदैव दिखता है
मल लुढ़काता हुआ
रेत- चार
रेत सिर्फ रेत है
समझ आती है
जब
हो जाओ रेत से

Tuesday, March 22, 2011

झमेले हो गए

आसमां के हाथ मैले हो गये
ये महल कैसे तबेले हो गये

जो खनकते थे कभी कलदार से
अब सरे बाज़ार धेले हो गये

घूमती थी बग्घियाँ किस शान से
आजकल सड़कों पे ठेले हो गये

इस शहर में कौन बोलेगा भला
लोग ख़ामोशी के चेले हो गये

देखिये तो छक्के पंजे जब मिले
कल के नहले आज दहले हो गये

अपनी खुद्दारी नज़रिया औ हुकूक
जान को लाखों झमेले हो गये

Friday, March 18, 2011

होली है

होली की मुबारकबाद के साथ आप के लिए चन्द दोहे

सहजन फूला साजना,महुआ हुआ कलाल
मौसम दारु बेचता,हाल हुआ बेहाल

गेंहू गाभिन गाय सा,चना खनकते दाम
महुआ मादक हो गया,बौराया है आम

गौरी है कचनार सी,नैनों भरा उजास
पिया बसंती हो गए,आया है मधुमास

फगुनाया मौसम हुआ,अलसाया सा गात
चौराहे होने लगी तेरी मेरी बात

सतरंगी है ओढ़नी,पचरंगी है पाग
जीवन चाहे रेत हो मनवा खेले फाग

हवा सीटियाँ मारती,मद बरसे आकाश
रस्ते चलते छेड़ता,आवारा मधुमास

मेघदूत तो है नहीं,कुरजां ले सन्देश
जिस के रंग राची फिरूं वो क्यों है परदेश

फागुन छोटा देवरा,फिर फिर छेड़े आय
मनवा बैरी हो गया,तन में अगन लगाय

भाभी बौरायी फिरे,साली भी दे ताल
मीठी मीठी छेद से,मनवा हुआ निहाल

इस फागुन की रात में चांद रहा भरमाय
चढ़ा करेला नीम पे,करिये कौन उपाय

चान्दी सी है चांदनी,सोने सी है रेत
अळगोजा बरसा रहा हेत,हेत और हेत

फागुन बाराती हुआ,तन थिरके सुर ताल
आँख निमंत्रण पत्र सी,मन जैसे वर माल

मनवा खिला पलाश है,तन टेसू का फूल
पगलाये माहौल में,कर भूलों पर भूल

Thursday, March 17, 2011

मौसम है आता जाता है

इस का कब पक्का नाता है
मौसम है,आता, जाता है

सपनों को समझाऊँ कैसे
जब जी चाहे तू आता है

कोई नदी दीवानी होगी
तभी समंदर अपनाता है

सन्नाटा चाहे दिखता हो
एक बवंडर गहराता है

बच्चा जब सीधा बूढ़ा हो
खून रगों में जम जाता है

जिन्हें चलाना आता,उन का
खोटा सिक्का चल जाता है

लाख अंधेरों की साजिश हो
अपना सूरज से नाता है

Friday, March 11, 2011

रिश्ते सूखे फूल गुलाबों के

रिश्ते सूखे फूल गुलाबों के
भूले जैसे हर्फ़ किताबों के

ये मिलना भी कोई मिलना है
इस से अच्छे दौर हिजाबों के

सीधी सच्ची बातें कौन सुने
शैदाई है लोग अजाबों के

दौर फकीरी का भी हो जाये
कब तक देखें तौर रुआबों के

ना छिपता,ना पूरा दिखता है
पीछे जाने कौन नकाबों के

कई सवारों ने ठोकर खाई
जाने किस ने राज रकाबों के

जारी देखो अब भी बेगारी
गुजरे चाहे दौर नवाबों के

Thursday, March 10, 2011

यूँ हुआ क्यूँ कर

ज़िक्र बदरंग हर हुआ क्यूँ कर
हर ख़ुशी के लिए दुआ क्यूँ कर

नाव कागज़ की खूब तैरे है
आदमी इस तरह हुआ क्यूँ कर

आज तक धडकनों में तूफां हैं
आप ने इस क़दर छुआ क्यूँ कर

लोग चुपचाप क़त्ल देखे है
कौन पूछे कि ये हुआ क्यूँ कर

या कि राजा है या कि रंक यहाँ
ज़िन्दगी इस क़दर जुआ क्यूँ कर

मैंने रस्ते बनाये आप यहाँ
आप मेरे हैं रहनुमा क्यूँ कर

यूँ न होता तो यूँ नहीं होता
यूँ न हो कर ये यूँ हुआ क्यूँ कर

Monday, March 7, 2011

क्या जाने

क्या जाने

अब मेरे ज़ब्र के है क्या माने
तू कहे क्या,करे ,ये क्या जाने

आँख को मूंदना अदा गोया
पाँव छाती पे,कब हो,क्या जाने

फैलना इक नशा शहर का है
गाँव कब खो गया ये क्या जाने

मंद कंदील तुम ने बाले तो
रोशनी हो न हो ये क्या जाने

हम मुसाफिर है तो चलेंगे ही
राहे मंजिल है क्या,ये क्या जाने

कलम गुस्ताख कुछ भी कहती है
कलम हो सर,ये कब,ये क्या जाने

Friday, March 4, 2011

एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल

रिरिया रहे है लोग
घिघिया रहे है लोग

उद्घोष होना चाहिए
मिमिया रहे है लोग

बेदर्द क़त्ल है ये
बतिया रहे है लोग

है वक़्त पूनियों सा
कतिया रहे है लोग

संवेदना मरी है
खिसिया रहे है लोग

धोखे की टट्टियों को
पतिया रहे है लोग

कुर्सी पे बैठे बैठे
गठिया रहे है लोग

आदम नहीं गधे सा
लतिया रहे है लोग

मौके भुना रहे है
हथिया रहे है लोग