Friday, March 4, 2011

एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल

रिरिया रहे है लोग
घिघिया रहे है लोग

उद्घोष होना चाहिए
मिमिया रहे है लोग

बेदर्द क़त्ल है ये
बतिया रहे है लोग

है वक़्त पूनियों सा
कतिया रहे है लोग

संवेदना मरी है
खिसिया रहे है लोग

धोखे की टट्टियों को
पतिया रहे है लोग

कुर्सी पे बैठे बैठे
गठिया रहे है लोग

आदम नहीं गधे सा
लतिया रहे है लोग

मौके भुना रहे है
हथिया रहे है लोग

3 comments:

विवेक मिश्र said...

वाह! ग़ज़ल में प्रयुक्त आपके विस्तृत शब्द-कोष से अभिभूत हूँ. बेहद प्रभावशाली कहन.

अरुण अवध said...

भई ,कमाल है !! आम बोलचाल के शब्दों से एक अर्थपूर्ण ग़ज़ल रच देना वाकई सराहनीय है ! बधाई अश्विनी जी !

sushila said...

गागर में सागर ! इतने कम शब्दों में समाज और लोगों का चरित्र-चित्रण बेहद सटीक और सराहनीय है ! बधाई !
नूतन वर्ष की शुभकामनाएँ !