एक ग़ज़ल
रिरिया रहे है लोग
घिघिया रहे है लोग
उद्घोष होना चाहिए
मिमिया रहे है लोग
बेदर्द क़त्ल है ये
बतिया रहे है लोग
है वक़्त पूनियों सा
कतिया रहे है लोग
संवेदना मरी है
खिसिया रहे है लोग
धोखे की टट्टियों को
पतिया रहे है लोग
कुर्सी पे बैठे बैठे
गठिया रहे है लोग
आदम नहीं गधे सा
लतिया रहे है लोग
मौके भुना रहे है
हथिया रहे है लोग
3 comments:
वाह! ग़ज़ल में प्रयुक्त आपके विस्तृत शब्द-कोष से अभिभूत हूँ. बेहद प्रभावशाली कहन.
भई ,कमाल है !! आम बोलचाल के शब्दों से एक अर्थपूर्ण ग़ज़ल रच देना वाकई सराहनीय है ! बधाई अश्विनी जी !
गागर में सागर ! इतने कम शब्दों में समाज और लोगों का चरित्र-चित्रण बेहद सटीक और सराहनीय है ! बधाई !
नूतन वर्ष की शुभकामनाएँ !
Post a Comment