Saturday, February 26, 2011

एक ग़ज़ल

एक ग़ज़ल

ख़त आता था ख़त जाता था
बहुत अनकही कह जाता था

बूढ़े बरगद की छाया में
पूरा कुनबा रह जाता था

झगडा मनमुटाव ताने सब
इक आंसू में बह जाता था

कहे सुने को कौन पालता
जो कहना हो कह जाता था

तन की मन की सब बीमारी
माँ का आँचल सह जाता था

कई दिनों का बोल अबोला
मुस्काते ही ढह जाता था

लाख अभावों के जीवन में
भाव सदा ही बच जाता था

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