बिखरी है धूप
नरम रुई के गाले सी
नवजात खरगोश सी
कूदती फिरती है
आंगन में बच्चियों सी
खेलती है आइस पाइस
चढ़ती उतरती है सीढियाँ
करती है कानाफूसी
बतियाती है
कभी कभी चिढाती है
ठिठोली करती है
खिलंदड़ी धूप
कभी कभी देर से आती है
नकचढ़ी धूप
धूप आओ खेलेंगे
और खेल खेल में
तुम दीवार के उस पार भी झांकना
1 comment:
झाकोंगी न???????
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