Wednesday, February 2, 2011

धूप दिसम्बर में

बिखरी है धूप
नरम रुई के गाले सी
नवजात खरगोश सी
कूदती फिरती है
आंगन में बच्चियों सी
खेलती है आइस पाइस
चढ़ती उतरती है सीढियाँ
करती है कानाफूसी
बतियाती है
कभी कभी चिढाती है
ठिठोली करती है
खिलंदड़ी धूप
कभी कभी देर से आती है
नकचढ़ी धूप
धूप आओ खेलेंगे
और खेल खेल में
तुम दीवार के उस पार भी झांकना

1 comment:

Nidhi said...

झाकोंगी न???????