Sunday, February 20, 2011

एक ग़ज़ल

हिल गए आधार है शायद जमीं के
ध्रुव तलक लगता नहीं काबिल यकीं के

खुश्क धरती का कलेजा फट गया है
है नहीं आसार अब बाकी नमी के

अब मकां न है नजर आती दीवारें
लोग रहते है यहाँ लगते कहीं के

रोज़ खाली हाथ लौटा उस गली से
इस कदर झूठे इशारे महज़बीं के

वक़्त गन्दी नालियों सा बह रहा है
आदमी-दर-आदमी साये गमी के

रोज़ काले बादलों की भीड़ लगती
आसमां में दायरे लेकिन कमी के

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