हिल गए आधार है शायद जमीं के
ध्रुव तलक लगता नहीं काबिल यकीं के
खुश्क धरती का कलेजा फट गया है
है नहीं आसार अब बाकी नमी के
अब मकां न है नजर आती दीवारें
लोग रहते है यहाँ लगते कहीं के
रोज़ खाली हाथ लौटा उस गली से
इस कदर झूठे इशारे महज़बीं के
वक़्त गन्दी नालियों सा बह रहा है
आदमी-दर-आदमी साये गमी के
रोज़ काले बादलों की भीड़ लगती
आसमां में दायरे लेकिन कमी के
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