Friday, August 31, 2012

दिन हिस्से का

वही उनींदा
दिन हिस्से का
फिर निकला है
ऊंघा ऊंघा
आँख मसलता
झांक रहा है
खिडकी में से
पथराया सा आसमान है
धरती भी बेसुध
अलसाई

गली पड़ी
निर्लज्ज उघाड़ी
वक्त बेहया
दांत मांजता
देख रहा है
लगा टकटकी

टपका ही होगा
महुआ भी
इक आँगन में
हारसिंगार महकता होगा
जुही झटक रही होगी
शबनम की बूँदें
गमले में इक
सजा मोगरा
इतराता हो

हिस्सा हिस्सा
दिन निकला है
अपने अपने
किस्से ले कर
महका दिन या
टपका दिन हो
मौसम गर
पथरा जायेगा
बहुत पछीटा जाये
फिर भी
दिन उजला होना
मुश्किल है


आधुनिक दोहे

गलियों गलियों हो रही रंगों की बौछार

बस्ती बस्ती हो गये कितने रंगे सियार



बातों बातों में हुई ख़ारिज अपनी बात

बातों बातों नप गयी यूँ अपनी औकात



रंग हुए शमशीर से,रंग बने पहचान

जीना बेरंगी हुआ अब कितना आसान



झंडे , बैनर ,पोस्टर ,नारे या उद्घोष

जब भी कोई चुन लिया,हो जाते मदहोश


Monday, August 27, 2012

कागज

सुनो
कागज बहुत करामाती चीज़ है
जिस पर क्रांति
घटित की गयी है /
की जा रही है /
की जा सकती है.
फिर
बंद किया जा सकता है उसे
कल्लू कबाड़ी के गोदाम में
उस पर रख कर
खाई जा सकती है कचोरी
किया जा सकता है
पुनर्चक्रित
बनाया जा सकता है
मॉल में बेचे गये माल
हेतु
कैरीबैग


Thursday, August 23, 2012

विषपायी

लपलपाती जीभ 
छाई आसमां पर 
बैगनी बादल 
बने हैं 
सांड छुट्टे

इक भिखारिन सी 
धरा ये 
ताकती है 
लाज धरती की 
भला अब कौन ढांपे
क्या संभाले
वस्त्र जर्जर
जो कि
तुरपन से परे हैं
इक नदी की लाश को
छाती लगाये
पूछती है
झील ये
क्यूँ मर रही है
ढोल से बजते
पहाड़ों से
निकलती हैं सदाएं

गर्क गुब्बारे कई कर
फाड़ कर
कितनी पतंगें
आंधियां फुफकारती हैं
उठ रहे कितने बगूले
आँख में
ज़बरन कसकते

इक हरिण मादा
खड़ी सिसकी दबाये
शेर बैठा मांद में
बांचे किताबें
गीदड़ों की टोलियाँ
बाजार घूमे
एक चूहा
देखता है
आदमी ने बिल बनाए

इक रंभाती गाय
सहसा कह उठी है
एक विष कन्या बनी मै
कब तलक
अमृत पिलाऊँ

Sunday, August 19, 2012

सुन रे कलुआ

सुन रे कलुआ
प्रेम लिखें क्या ?
चल जुगाड कर
कोई कलेंडर
औरत की फोटू वाला हो
ढूंढ कि इस में
प्रेम छिपा है
बालों में
आँखों में होगा
माथे की सलवट खंगाल तो
कानों के पीछे ढूँढा क्या ?
नाक देख तो
सांस पता कर
गन्ध कोई तो
आती होगी
गर्दन देखी ?
कन्धों पर लटका हो शायद
देख जरा
हाथों में क्या है
अरे भाग्य रेखा में होगा
छिपा उँगलियों की पोरों में
या फिर गर्म हथेली में हो

देख
झटक कर इन सपनों को
उखड़ी साँसों का
हिसाब कर
आंसू को
थोडा उबाल ले
तकिये का
गीलापन देखा ?

चल रे छोड़
पलट थोडा तो
देख दिठौने में दिखता है
मौली के धागे में बैठा
वहाँ बाजरे के सिट्टे में
चने के खट्टे साग में होगा
रोटी की सौंधी
सुगंध में

थोडा धौल धप्पे में
भी है
मीठी सी
झिडकी,गाली में

ये पक्का भगवान के जैसा
मिले कहाँ
ये किसे पता है

पता कहीं दे
मिले कहीं पे 

Thursday, August 16, 2012

खोया पाया

अर्द्ध शतक के पार
जिंदगी आ पहुंची है
देख रहा हूँ
तलपट में क्या
दर्ज हुआ है
जो खोया है
ज़िक्र भला क्या
जो पाया है
वो ही देखूं

पाये हैं
कुछ तमगे,ट्राफी
लेबल हैं कुछ
नेम प्लेट है
सींग निकल आये हैं
सर पर
अकड़ी गर्दन
सिर को कब
हिलने देती है
माथे की सलवट
बरसाती अंगारे से
भिंची मुट्ठीयों की
गिरफ्त में
कई कहानी
कह भी डाली
नहीं मगर जो
कह पाया वो

थोड़े से
सिंदूरी पल हैं
मटमैले कुछ
धूसर थोड़े
इक ढक्कन में बंद
बहुत सारा उफान है
चीख दूध की
उबल उबल कर
ना बह पाया

गोल मेज़ पर बैठ
की गयी कानाफूसी
कोनों में कुछ
लिखी इबारत
धुंधली धुंधली
कई उफनते अहसासों की
लिए गठरिया
झोली भर विश्वासों के
साये में दिखते
फटी कंथडी के
कुछ बेबस से टाँके हैं

दर्ज पतंगों की उड़ान है
उलझी उलझी
डोर हाथ में

गहरे पानी के मूंगे
जिन को समझा था
उथले पानी की
सीपों में
बदल गये हैं

एक गोडावण रेगिस्तानी
ठुमक ठुमक
चलता यादों में
काली पीली आंधी में
खोता जाता है
मोर कभी जो
सतरंगी पंखों से नाचा
छोड़ पंख को
घूम रहा है

वीरबहुटी
ताक रही है
इक कलगी धारी
मुर्गे को