Thursday, August 16, 2012

खोया पाया

अर्द्ध शतक के पार
जिंदगी आ पहुंची है
देख रहा हूँ
तलपट में क्या
दर्ज हुआ है
जो खोया है
ज़िक्र भला क्या
जो पाया है
वो ही देखूं

पाये हैं
कुछ तमगे,ट्राफी
लेबल हैं कुछ
नेम प्लेट है
सींग निकल आये हैं
सर पर
अकड़ी गर्दन
सिर को कब
हिलने देती है
माथे की सलवट
बरसाती अंगारे से
भिंची मुट्ठीयों की
गिरफ्त में
कई कहानी
कह भी डाली
नहीं मगर जो
कह पाया वो

थोड़े से
सिंदूरी पल हैं
मटमैले कुछ
धूसर थोड़े
इक ढक्कन में बंद
बहुत सारा उफान है
चीख दूध की
उबल उबल कर
ना बह पाया

गोल मेज़ पर बैठ
की गयी कानाफूसी
कोनों में कुछ
लिखी इबारत
धुंधली धुंधली
कई उफनते अहसासों की
लिए गठरिया
झोली भर विश्वासों के
साये में दिखते
फटी कंथडी के
कुछ बेबस से टाँके हैं

दर्ज पतंगों की उड़ान है
उलझी उलझी
डोर हाथ में

गहरे पानी के मूंगे
जिन को समझा था
उथले पानी की
सीपों में
बदल गये हैं

एक गोडावण रेगिस्तानी
ठुमक ठुमक
चलता यादों में
काली पीली आंधी में
खोता जाता है
मोर कभी जो
सतरंगी पंखों से नाचा
छोड़ पंख को
घूम रहा है

वीरबहुटी
ताक रही है
इक कलगी धारी
मुर्गे को 

No comments: