Friday, August 31, 2012

दिन हिस्से का

वही उनींदा
दिन हिस्से का
फिर निकला है
ऊंघा ऊंघा
आँख मसलता
झांक रहा है
खिडकी में से
पथराया सा आसमान है
धरती भी बेसुध
अलसाई

गली पड़ी
निर्लज्ज उघाड़ी
वक्त बेहया
दांत मांजता
देख रहा है
लगा टकटकी

टपका ही होगा
महुआ भी
इक आँगन में
हारसिंगार महकता होगा
जुही झटक रही होगी
शबनम की बूँदें
गमले में इक
सजा मोगरा
इतराता हो

हिस्सा हिस्सा
दिन निकला है
अपने अपने
किस्से ले कर
महका दिन या
टपका दिन हो
मौसम गर
पथरा जायेगा
बहुत पछीटा जाये
फिर भी
दिन उजला होना
मुश्किल है


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