लपलपाती जीभ
छाई आसमां पर
बैगनी बादल
बने हैं
सांड छुट्टे
इक भिखारिन सी
धरा ये
ताकती है
लाज धरती की
छाई आसमां पर
बैगनी बादल
बने हैं
सांड छुट्टे
इक भिखारिन सी
धरा ये
ताकती है
लाज धरती की
भला अब कौन ढांपे
क्या संभाले
वस्त्र जर्जर
जो कि
तुरपन से परे हैं
इक नदी की लाश को
छाती लगाये
पूछती है
झील ये
क्यूँ मर रही है
ढोल से बजते
पहाड़ों से
निकलती हैं सदाएं
गर्क गुब्बारे कई कर
फाड़ कर
कितनी पतंगें
आंधियां फुफकारती हैं
उठ रहे कितने बगूले
आँख में
ज़बरन कसकते
इक हरिण मादा
खड़ी सिसकी दबाये
शेर बैठा मांद में
बांचे किताबें
गीदड़ों की टोलियाँ
बाजार घूमे
एक चूहा
देखता है
आदमी ने बिल बनाए
इक रंभाती गाय
सहसा कह उठी है
एक विष कन्या बनी मै
कब तलक
अमृत पिलाऊँ
क्या संभाले
वस्त्र जर्जर
जो कि
तुरपन से परे हैं
इक नदी की लाश को
छाती लगाये
पूछती है
झील ये
क्यूँ मर रही है
ढोल से बजते
पहाड़ों से
निकलती हैं सदाएं
गर्क गुब्बारे कई कर
फाड़ कर
कितनी पतंगें
आंधियां फुफकारती हैं
उठ रहे कितने बगूले
आँख में
ज़बरन कसकते
इक हरिण मादा
खड़ी सिसकी दबाये
शेर बैठा मांद में
बांचे किताबें
गीदड़ों की टोलियाँ
बाजार घूमे
एक चूहा
देखता है
आदमी ने बिल बनाए
इक रंभाती गाय
सहसा कह उठी है
एक विष कन्या बनी मै
कब तलक
अमृत पिलाऊँ
1 comment:
बहुत सूंदर अश्विनी भाई...
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