Thursday, August 23, 2012

विषपायी

लपलपाती जीभ 
छाई आसमां पर 
बैगनी बादल 
बने हैं 
सांड छुट्टे

इक भिखारिन सी 
धरा ये 
ताकती है 
लाज धरती की 
भला अब कौन ढांपे
क्या संभाले
वस्त्र जर्जर
जो कि
तुरपन से परे हैं
इक नदी की लाश को
छाती लगाये
पूछती है
झील ये
क्यूँ मर रही है
ढोल से बजते
पहाड़ों से
निकलती हैं सदाएं

गर्क गुब्बारे कई कर
फाड़ कर
कितनी पतंगें
आंधियां फुफकारती हैं
उठ रहे कितने बगूले
आँख में
ज़बरन कसकते

इक हरिण मादा
खड़ी सिसकी दबाये
शेर बैठा मांद में
बांचे किताबें
गीदड़ों की टोलियाँ
बाजार घूमे
एक चूहा
देखता है
आदमी ने बिल बनाए

इक रंभाती गाय
सहसा कह उठी है
एक विष कन्या बनी मै
कब तलक
अमृत पिलाऊँ

1 comment:

sbdixit said...

बहुत सूंदर अश्विनी भाई...