Friday, June 29, 2012

छूट गया कुछ


थोडा थोडा छूट गया हूँ 
एक गली के कोने मे कुछ 
छत की उस दिवार के पीछे 
रूमानी शेरों मे थोडा
नाई की दूकान पर शायद 
चाय पान की थडी पै कुछ हो 
एक पेड़ के तने पै शायद 
अब भी मेरा नाम खुदा हो 
भरे हुए उस इक जोहड़ मे 
लटके हुए पैर हों शायद 
उस विशाल टीले पर देखो 
लुढक रहा हो मेरा बचपन  
गीली रेत थपक पैरों पर 
बने हुए सब घरों मे होगा 


भुने बाजरे के सिट्टे मे 
झडबेरी मे भी अटका हूँ 
चितकबरी बकरी भोली सी 
गौरी गैया रम्भा रही है 
ऊँट कई किश्तों मे उठता 
जीवन की अंगडाई जैसा 
एक भेड़ का बच्चा शायद 
गर्दन अब भी चाट रहा है 


खाली माचिस की डिब्बी मे 
बंद कई क्षण मेरे ही है 
सोडा वाटर की बोतल का ढक्कन 
अभी जेब मे शायद 


जितना जो छूटा
उतना खालीपन भरने 
जाने कितने जतन किये हैं 


मानव अंग मगर 
खो जाते तो खो जाते 
मरने तक बस वही कमी 
पीछा करती है  

3 comments:

ANULATA RAJ NAIR said...

लाजवाब...

अनु

S.N SHUKLA said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति, सुन्दर भाव, बधाई .

कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा .

राजेश चड्ढ़ा said...

बने हुए सब घरों मे होगा ....तो छूटा कहां......साहब....!