थोडा थोडा छूट गया हूँ
एक गली के कोने मे कुछ
छत की उस दिवार के पीछे
रूमानी शेरों मे थोडा
नाई की दूकान पर शायद
चाय पान की थडी पै कुछ हो
एक पेड़ के तने पै शायद
अब भी मेरा नाम खुदा हो
भरे हुए उस इक जोहड़ मे
लटके हुए पैर हों शायद
उस विशाल टीले पर देखो
लुढक रहा हो मेरा बचपन
गीली रेत थपक पैरों पर
बने हुए सब घरों मे होगा
भुने बाजरे के सिट्टे मे
झडबेरी मे भी अटका हूँ
चितकबरी बकरी भोली सी
गौरी गैया रम्भा रही है
ऊँट कई किश्तों मे उठता
जीवन की अंगडाई जैसा
एक भेड़ का बच्चा शायद
गर्दन अब भी चाट रहा है
खाली माचिस की डिब्बी मे
बंद कई क्षण मेरे ही है
सोडा वाटर की बोतल का ढक्कन
अभी जेब मे शायद
जितना जो छूटा
उतना खालीपन भरने
जाने कितने जतन किये हैं
मानव अंग मगर
खो जाते तो खो जाते
मरने तक बस वही कमी
पीछा करती है
3 comments:
लाजवाब...
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति, सुन्दर भाव, बधाई .
कृपया मेरी नवीनतम पोस्ट पर भी पधारने का कष्ट करें, आभारी होऊंगा .
बने हुए सब घरों मे होगा ....तो छूटा कहां......साहब....!
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