है परत-दर-परत क्या बना आदमी
जैसे कोहरे का साया घना आदमी
जब मुकाबिल खड़ा अक्स खुद का हुआ
कर न पाया कभी सामना आदमी
चाशनी में मुहब्बत की सर तक पगा
और अगले ही पल कटखना आदमी
न रहो मन जले,गर रहो तन जले
जैसे है इक मकां अधबना आदमी
इस अलस भोर में आधा जागा हुआ
आधा सोता हुआ,अनमना आदमी
ख्वाहिशें,बंदिशें,साजिशें लाख हों
भूल पाया नहीं धड़कना आदमी
एक पाकीज़गी है जो कायम रही
यूँ गलाज़त में कितना सना आदमी
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