Thursday, August 4, 2011

एक गज़ल

एक गज़ल

तस्वीरं जिन की छपती अख़बारों में
लोग वही मिल जाते हैं गलियारों में

खाक,कफ़न और आग कहाँ मिल पाएगी
जिंदा ही जब चुने गए दीवारों में

वो बाजारू कभी कहाँ कहलाते हैं
अक्सर जो घूमा करते बाजारों में

एक सुबह का अक्स कभी दिखलाया था
ढूंढ रहा हूँ आकाशी विस्तारों में

संविधान की पोथी मुझे दिखाओ तो
क्या लिक्खा है वहाँ मूल अधिकारों में

रोज योजना एक नयी आ जाती है
और भीड़ बढ़ जाती कई कतारों में

वोट लिया और सजा पालकी जा बैठे
वोट दिया और शामिल हुए कहारों में

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