Sunday, April 24, 2011

रेत आषाढ़ में

आषाढ़ में या सावन में
जब भी उठेगी तीतरपंखी बादली
चलेगी पुरवाई
थकने लगी होगी पगलाई डोलती रेत
तब
अनंत के आशीष सी
माँ के दुलार सी
कुंआरे प्यार सी
पड़ेगी पहली बूँद
रेत पी जायेगी उसे चुपचाप
बिना किसी को बताये
बूँद कोई मोती बन जायेगी

उठेगी दिव्य गंध
कपूर या लोबान सी
महक उठेगा रेगिस्तान
श्रम-क्लांत युवती के सद्य स्नात शरीर सा
रेत की खुशबू फ़ैल जायेगी दिगदिगंत

यदि बेवफा रहा बादल
तो रेत का दुःख दिखेगा धरती के गाल पर
अधबहे परनाले के रूप में
बादल हुआ अगर पागल प्रेमी
तो हरख हरख गायेगी रेत
पगलायी धरती उगा देगी कुछ भी
जगह जगह,यहाँ वहां
हरा, गुलाबी,नीला,पीला
काम का,बिना काम का
कंटीला,मखमली,सजीला या ज़हरीला भी
धूसर रेत पर चलेंगे हल
हरी हो जायेगी धरती की कोख

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