आषाढ़ में या सावन में
जब भी उठेगी तीतरपंखी बादली
चलेगी पुरवाई
थकने लगी होगी पगलाई डोलती रेत
तब
अनंत के आशीष सी
माँ के दुलार सी
कुंआरे प्यार सी
पड़ेगी पहली बूँद
रेत पी जायेगी उसे चुपचाप
बिना किसी को बताये
बूँद कोई मोती बन जायेगी
उठेगी दिव्य गंध
कपूर या लोबान सी
महक उठेगा रेगिस्तान
श्रम-क्लांत युवती के सद्य स्नात शरीर सा
रेत की खुशबू फ़ैल जायेगी दिगदिगंत
यदि बेवफा रहा बादल
तो रेत का दुःख दिखेगा धरती के गाल पर
अधबहे परनाले के रूप में
बादल हुआ अगर पागल प्रेमी
तो हरख हरख गायेगी रेत
पगलायी धरती उगा देगी कुछ भी
जगह जगह,यहाँ वहां
हरा, गुलाबी,नीला,पीला
काम का,बिना काम का
कंटीला,मखमली,सजीला या ज़हरीला भी
धूसर रेत पर चलेंगे हल
हरी हो जायेगी धरती की कोख
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