चांदनी रात में
रेगिस्तान खोलता है अपने राज
उन्नत वक्ष से टीले
एक के बाद एक
भिन्न रूपाकारों में
मांसल गोलाइयों से
अनावृत पसरे है
रति-श्रम से थके
या बेसुध सुरापान कर
या अम्मल डकार कर
या आत्म केन्द्रित रूप गर्विता से
सम्मोहक गहराइयाँ
विवश करती है
मुंह छुपा इस मांसल सौन्दर्य को
छु कर महसूस करने को
ये अप्रतिम, अनंत
अनगढ़,आदिम सौन्दर्य-राशि
फैली है मूक आमंत्रण सी
सभी दिशाओं में
आकंठ उब-डूब करती हुई
चाँद भी देखता है
ठगा सा
वैसे ही जैसे
कभी रह गया होगा
ठगा सा
गौतम-पत्नी अहिल्या को देख कर
शापित अहिल्या की रूप-राशि का कोई हिस्सा
प्रस्तर न बन कर
बन गया था यह रेत-राशि
चाँद आज भी
सम्मोहित देखता रहता है
जड़,निःशब्द
गौतम के शाप के बावजूद
इस अप्रतिम,अनंत
अनगढ़, आदिम सौन्दर्य-राशि के
मखमली स्पर्श को
पी लो,जी लो
या
रोम रोम में
महसूस कर लो
सिहरन सा
या अपना लो
इस जड़ निःशब्द
चाँद की साक्षी में
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