Sunday, April 24, 2011

कुछ कीजिये

वक़्त बेआवाज़ है,कुछ कीजिये
ये धरा मोहताज़ है,कुछ कीजिये

लग रही मासूम सी जो सेमिनार
एक साज़िश,राज़ है,कुछ कीजिये

अब तरक्की मांगती है नर-बलि
ये गलत अंदाज़ है,कुछ कीजिये

हो गयी धरती की बेनूरी बहुत
आसमां नाराज़ है,कुछ कीजिये

ज़िन्दगी को जो तिजारत मानते
वक़्त के सरताज है,कुछ कीजिये

बस शिकंजों में कसा है आदमी
क़ैद में परवाज़ है,कुछ कीजिये

वक़्त मरहम है सुना हम ने बहुत
वक़्त ही नासाज़ है,कुछ कीजिये

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