मैं समझता था
शायद प्रेम कोई
गैस का गुब्बारा है
जिस में बैठ कर
छुआ जा सकता है आसमान
महसूस किया जा सकता है
स्वयं को उड़ते हुए
भरा जा सकता है
आसमान को बांहों में
या हुआ जा सकता है
आसमान ही
उड़ा जा सकता है
एक पंछी की तरह
स्वतंत्र,निर्भार ,मुक्त
शायद हुआ जा सकता है
समुद्र
ठाठें मारता हुआ
जो लहर लहर आ कर
भिगो दे
तन ही नहीं मन भी
शायद प्यार
बो देता है कोई बीज
मन में रजनीगन्धा का
जिस की गंध में
मत्त हो
गुजारी जा सकती है
ये छोटी सी जिंदगी
पर शायद तुम्हे
ज़रूरत एक खूँटी की थी
जिस पर टांग सको तुम
अपने उतारे हुए कपडे
और वापिस पहन सको
अपनी सुविधानुसार
तुम्हे आवश्यकता थी
एक ब्लैक बोर्ड की
जिस पर लिख सको तुम
अपने उपालम्भ,खीझ,उदगार
मिटा सको और पुनः लिख सको
जैसे जी चाहे
बिना ये सोचे कि ब्लैक बोर्ड भी
अगर सोच सकता तो
कैसा लगता उसे
या तुम्हे चाहिए कोई चाबी का गुच्छा
जो लटका रहे
तुम्हारी कमर से
बजता रहे तुम्हारी
पदचाप के साथ
देता रहे ताल
जिस से खोल सको तुम
वो संदूक
जिस में बंद है
तुम्हारे बचपन के कुछ खिलोने
और बहला सको खुद को
क्षमा करना प्रिये
मैं नहीं हो सका
आकाश,समुद्र या गंध
मैं नहीं हो पाऊंगा
खूँटी ,ब्लैक बोर्ड या चाबी का गुच्छा भी
3 comments:
nice one
amazing...
kya ho paoge akhir ye bhi to batao!
Post a Comment