Wednesday, June 29, 2011

रिश्ता और रेगिस्तान

रिश्ता एक खेजड़ी है
जो चाहे छांग दी जाये
कितनी बार
पनप आती है हर बार
दुगुने जोश से
पनप जाता है सब कुछ जिस के साये में.

रिश्ता नहीं होता रोहिडा
जो अंगारे से गंधहीन फूल लिये
खिला रहता है / बियाबान में
कुछ भी नहीं पनपता जिस के साये में

रिश्ता आक भी नहीं है
जो उड़ा देता है
बीजों को रुई सा
पूरे माहौल में
चिपचिपे दूध सा / चिपक जाता है
अपनी ज़हरीली तासीर लिये

रेत जानती है रिश्तों को
चिपक जाती है तन पर प्यार से
हट जाती है उतनी ही आसानी से
पूरा मौका देती है
पनपने का / खुलने का
रेत हक नहीं जताती
मालिकाना भी नहीं
रेत सिर्फ ढलना जानती है
आप की सहूलियत के अनुसार
रिस जाती है बंद मुट्ठी से भी
चुपचाप बिना किसी शिकायत के
अगर रिसने दिया जाये तो

रेत नहीं जानती
रिश्ते को कोई /नाम देना भी
बस एक नामालूम सी
उपस्थिति बनी रहती है
ज़ेहन से शरीर तक

रिश्ता न ज़हरीला चिपचिपा दूध है
न अंगार रंग का
गंध रहित फूल
वो है खेजडी सा
जो पनपती है / पनपाती है
देती है लूँग,सांगरी
जल लेती है चूल्हे में भी
वो है रेत सा
जो आप की जिंदगी में
है भी और नहीं भी

रिश्ता जीता है
रेत में / खेजड़ी में
इसीलिये जीता है
रेगिस्तान के आदमी में

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