Friday, November 18, 2011

गज़ल

आँख से काजल चुराना ,खेल है
लब्ज़ का जादू दिखाना ,खेल है

हाथ में कासा औ थैली पीठ पर
रोज यूँ फेरी लगाना ,खेल है

कल जिसे फेंका था कूड़ेदान में
आज फिर से सर चढाना ,खेल है

मौत जिस घर में जवां हो कर चुकी
उस जगह जाजम ज़माना ,खेल है

लग रही ज़म्हूरियत उम्मीद से
वाह ज़न्खो की ज़नाना, खेल है

वक्त के जो कल ठिकानेदार थे
आज खुद ढूंढें ठिकाना ,खेल है

हर गली के मोड पर भैरों ,शनि
कब पड़े किस को मनाना,खेल है

खूब ये बेबाक लहजा बात का
बात बिन बातें बनाना ,खेल है

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