Sunday, September 23, 2012

खलिहान कि कविता

खलिहान से निकली
कविता को
होना चाहिये गुइंया
किसी टिकुली या
रंगीन लूगड़ी की
जाना चाहिये
पुरानी बही में लगे
अंगूठे को ढूँढने
सहलाना चाहिये
खांसते फेफड़ों को
चमकाना चाहिये
आँखों को
सितारों की तरह
घुमा देना चाहिये
पैरों को
लट्टू की तरह
पहन लेना चाहिये
ठसकेदार साफा

नहीं होना चाहिये उसे
काले हिरण या
चिंकारा की तरह
नहीं होना चाहिये
उजाड खँडहर में
उकेरी गयी
मूर्त्तियों की तरह
नहीं होना चाहिये
समुद्र में डूब कर
आत्म हत्या करते
अस्ताचलगामी सूरज की तरह

चाहिये न चाहिये
के बीच भी
कविता
तुम निकलते ही रहना
खलिहान से
सूर्योदय के साथ


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