Monday, November 5, 2012

रंग रंग


सूरज का नजला
जितना गिरा
उतनी ही रंगों ने करवट ली
मिटटी का स्वाद,जीभ नहीं
रोम लेते हें
बदल देते हें
धूसर को हरे में

जितने बवंडर उठे
उतने ही धंसे रंग
गहरे और गहरे
पैंदे पर जमे काले रंग को
खुरच खुरच कर
जब उतारा गया
सुनहरी आब ली रंगों ने

होली के रंग फिर भी उतर जायेंगे
दीपावली के इन दीपों का
सुनहरा रंग
खिलखिलाता है देर तक
इंद्र धनुष के रंग
गड्ड मड्ड हो कर
सफ़ेद नहीं होते
हज़ार गुणा होते हें
आँखों से नहीं मन से देखे जाते हें

कांपती लहरों पर
सूरज बिखर जाता है
खील खील
कांच के टुकड़ों सी किरणें
चुभती नहीं,गुदगुदाती हें

सुनो
रंग शास्त्रीय राग नहीं गाते
वो गाते हें
मांड,कजरी,चैती,बिरहा आल्हा
ताल मिलाते हें
भपंग और बाउल की खंजरी के साथ 

1 comment:

रश्मि प्रभा... said...

सुनो
रंग शास्त्रीय राग नहीं गाते
वो गाते हें
मांड,कजरी,चैती,बिरहा आल्हा
ताल मिलाते हें
भपंग और बाउल की खंजरी के साथ ... वाह