लोक लुभावन
फूल खिला है
फिर पलाश का
सूर्ख दहकते अंगारे सा
भ्रम उपजाता
आग लगी हो जैसे कोई
इस जंगल में
कितनी ही आशाएं विकसी
साथ में इस के
डाल गले में बांहे इस के
झूमा करती
पत्ती पत्ती पर
लिख डाले नाम सभी ने
बाँध दिए धागे कच्चे
मन्नत के कितने
अंगारों सी दहक लाल को
सब ने ही तो जी कर देखा
कौन जानता था
वो केवल एक ढाक है
जिसके होते
तीन पात ही
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