Sunday, April 1, 2012

zurm


चौराहे पर इक सपना गर 
क़त्ल हो गया 
ठंडी लाशें अगर 
घरों में घूमा करती 
खिल खिल करती लड़की 
गूंगी गुडिया बनती 
तकिया गर सिसकी सिसकी 
धधका करता है 
शब्द बाण से घायल होती 
रोज जवानी 
एक भयावह सपने जैसा 
बिस्तर हो जब 

इक बूढा बरगद सोचे 
जीना मजबूरी 
छाला छाला पाँव 
हाथ लकवा मारे से 
छाती जैसे टनों बोझ के
तले दबी हो 
जगती का कल्याण मनाती 
वेड ऋचाएं 
थर्राती हो 
घर के दरवाजे आने से 

इक बर्फीली नदी जमी हो 
आँगन में जब 
इक उदास सा नीम खड़ा हो 
मुंह लटकाए 
सोन चिरैया गाती रहती 
शोक गान सा 
काली कुतिया 
गली गली रोती फिरती है 
इक हारा सुलगा करता है 
चुपके चुपके 

हां सारे हैं जुर्म 
मगर परिभाषित कब हैं 
दंड संहिता चुप्पी साधे 
मुंह फेरे है 

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