Saturday, October 15, 2011

एक गज़ल

गर कोई लम्हा मिला है,वक्त कि रफ़्तार में
इक मुहर सा रख लिया ,हम ने छिपा दस्तार में

देखिएगा जिस्म को इक रोज नंगी आँख से
जानियेगा,फर्क क्या,मालिक किरायेदार में

कीमतन,वो चाहता है मुझ को,अब मैं क्या कहूँ
अब भी बाकी है,बहुत कुछ,जो नहीं बाजार में

बात मेरी तुम तलक पहुंची नहीं,पक्का है ये
कुछ कमी तो रह गयी होगी मेरे इज़हार में

एक आंधी ही मिटा देती है बस जिन का वजूद
ढूँढियेगा नक्श-ए-पा क्या रेत के विस्तार में

झाँक लेते हम कभी आ मौज में उस पार भी
गर कहीं होती कोई, खिडकी खुली, दीवार में

2 comments:

SpeeechWeaver.blogspot.com said...

गर कोई लम्हा मिला है,वक्त कि रफ़्तार में
इक मुहर सा रख लिया ,हम ने छिपा दस्तार में

देखिएगा जिस्म को इक रोज नंगी आँख से
जानियेगा,फर्क क्या,मालिक किरायेदार में
झाँक लेते हम कभी आ मौज में उस पार भी
गर कहीं होती कोई, खिडकी खुली, दीवार में...............lajawab ashaar.ASHVANI JI ,itni mda gazal ke liye bahut bahut mubaaraqbaad kabool farmaye.

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

एक मुकम्मल गज़ल अश्वनी भाई!!
"देखियेगा जिस्म को.." चुरा लेने का जी चाहता है... और "कीमतां वो चाहता है.." बेशकीमत शेर है..
एक मुकम्मल गज़ल!!
- सलिल वर्मा
(वार्ड वेरिफिकेशन हटा दें अश्वनी भाई)