बहुत अंतर है
प्रेम करने और
प्रेम में होने में
मैं प्रेम करता हूँ
तुम प्रेम में होती हो
मैं प्रेम कर रहा होता हूँ
तो शायद
जी रहा होता हूँ एक तलाश
मेरी अनंत प्यास
बार बार तुम्हारी देह
और देह के पार
ढूँढती है
इक मानसरोवर
और मैं हर बार
समुद्र का खारापन
मुंह में लिए स्वयं को
खुजली का मरीज पाता हूँ
मांसल या वायवीय
कोई अनुभव
नहीं बन पाता
इस प्यास की तृप्ति
क्यों की यह प्यास
मानसरोवर की है
और उस मानसरोवर के जल
का सिर्फ
रास्ता ही जाता है तुम से
कितना ही आरोपित करो तुम
सच यही है कि
मैं जो ढूंढ रहा हूँ
वो तुम नहीं हो
तुम में मुझे दिखाई देता है
उस का आभास
जो चाहिए मुझे
इसीलिए चाहता हूँ तुम्हे बार बार
मोहभंग भी
होता है बार बार
तुम भी जीना चाहती हो जो
वो नहीं है मेरे पास
वो भी कहीं है मेरे पार
मैं भी हूँ एक द्वार ही
और दो द्वार
एक दूसरे के भीतर से
नहीं निकल सकते
वही पार हो पायेगा
द्वार से जो नहीं रहेगा द्वार
झाँक कर देखेगा
उस पार
3 comments:
koi sabd karne hi nahi mil raha tarif karne ke liye
"और दो द्वार
एक दूसरे के भीतर से
नहीं निकल सकते
वही पार हो पायेगा
द्वार से जो नहीं रहेगा द्वार
झाँक कर देखेगा
उस पार"
बेहतरीन !
प्यार के द्वंद्व को खोलती यह एक बहुत अच्छी कविता है यह... गहरी प्रश्नाकुल भी और मासूम जवाबों सी भी... प्यार भी एक छलना ही है...
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