Tuesday, November 8, 2011

कस्बे का कोलाज

एक

क़स्बा
न गाँव रह पाया
न शहर हो पाया
जब भी हिकारत से देखा
कस्बे ने
गाँव को
शहर कि ओर से आई आंधी ने
भर दी रेत
आँख और मुंह में

दो

तिलिस्मी कस्बे में
कैसे भी बना लो
घर की दीवार
पारदर्शी हो जाती है

तीन

जनगणना वाले
कस्बे में
सर तो गिन लेते हैं
- खाने वाले
हाथ कहाँ गिनते हैं
- कमाने वाले

चार

दोस्त की बहन
और बहन की सहेलियां
बहन ही होती थी
कल तक तो

पांच

बल्लू को पता है
काली कुतिया ने
कितने पिल्ले दिए
कहाँ है कीड़ी-नगरा
कबूतरी ने अंडे कहाँ दिए
कोचरी रात को
कौन सी जांटी पर बोलती है
कुत्ते रात को
क्यों रोते हैं
पर मोहल्ले के छोरे
नहीं सुनते उस की बात
कहते हैं
बल्लू बावला

1 comment:

चला बिहारी ब्लॉगर बनने said...

अश्वनी भाई!!
हमेशा की तरह दिल को छूती हुयी!!
सलिल वर्मा