Tuesday, November 15, 2011

कस्बे में सुबह

भोर का तारा
रोज ऐलान करता है
लेकिन नहीं होती कस्बे में
भोर सी भोर

मुरझाया सा सूरज
रोज आ बैठता है
ड्यूटी पर
ऊबे नगरपालिका के बाबू सा
कड़काता है ऊँगलियाँ

सूरज को आना ही है
इसलिए आ जाता है
रोजाना
बिखर जाता है
थोडा थोडा
मंदिर के कलश पर
मस्जिद की मीनार पर
गली गली
आँगन आँगन

खटका देता है
कुछ कुंडियां
जगा देता है
छतों पर
ऊबे अकड़ाये से पड़े
कुछ नर मादा शरीरों को
झाड़ू को हिला देता है
बर्तनों को खनका देता है
बूढ़े मुंह में रख देता है
राम का नाम
बच्चों को पकड़ा देता है
माँ का स्तन

लेकिन नहीं पीता
एक प्याला चाय
किसी के भी साथ बैठ कर
नहीं करता
किसी को भी गुदगुदी

समझदार सूरज
चुपचाप पकड़ा देता है
तमाखू का मंजन
बीडी,खैनी ,चिलम

औरतों बच्चों की चिल्ल पों
मंदिर की आरती
मस्जिद की अजान
दूधियों की बाइक की गुर्राहट
सारी आवाजें एक साथ
गड्ड मड्ड सुनता सूरज

जा बैठता है
बाजार के बीच वाले
पीपल गट्टे पर
टुकुर टुकुर ताकता है
धीरे धीरे खुलती दुकानें
चाय पानी ,पान ,किराना
कपडे, जूते,मनिहारी का सामान

सूरज को पता है
कुछ इंसान आज भी
देंगे उस को अर्ध्य
कोई कोई
कर रहा होगा
सूर्य नमस्कार

सब का धन्यवाद कर
ऊबा सा सूर्स्ज
मिलेगा नुझे
गली के
किसी भी मोड पर
पूछेगा मुझ से
अपने दिनकर ,दिवाकर जैसे
नामों के अर्थ

मैं कहूँगा
सूरज
अगर तुम
जगाना ही चाहते हो
इस उनींदे कस्बे को
अगर वास्तव में चाहते हो
दिन करना
तो सीखना होगा तुम्हे
उदय होने का सलीका

1 comment:

sushila said...

अलस सुबह का प्रभावी चित्रण। सूरज का मानवीकरण और "ऊबे नगरपालिका के बाबू सा"
यह उपमान अच्छा लगा।